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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

2090.... मैं दुख का जश्न मनाऊंगा....

जय मां हाटेशवरी.....
दुनिया का सबसे ताकतवर इन्सान वो होता है,
जो धोखा खा के भी लोगों की मदद करना नहीं छोड़ता !!
सादर नमन.....
नयी समय-सारणी के अनुसार.....
मैं आज उपस्थित हूं......
 पढ़िये.....
आज के लिये मेरी पसंद।
विलुप्त प्रतिबिम्ब - -
जिस्म का फ्रेम
टूट ही जाएगा एक दिन,
कांच के पृष्ठ पर
चाहे जितनी ख़ूबसूरत
तुम ग़ज़ल लिखो,
हर एक आह लेकिन
असली शलभ नहीं होता,
काग़ज़ी फूलों की भीड़ में
 मुरझाने का सबब नहीं होता।
हाड़ मांस का चौखट है

हाँ, नपुंसक ही है वो
जागो, जागो, जागो
ओ बसंती हवाओं मत मिटाओ खुद को
उन नामर्दों के लिए तुम्हारे दर्द से बेहाल है
आज सम्पूर्ण स्त्री जाति तुम्हारे
आँसुओं से सुलग रही है
हमारी छाती
खुद पर रहम करना
आखिर कब सीखोगी तुम ?

वो न समझा है, न समझेगा.
सुबह पंछियों की आवाजों पर
कान टिकाये हुए चाय पीना
मध्धम आंच पर पकता सुख है.
इंतजार कोई नहीं...
फरहत शहजाद गुनगुना रहे हैं...
वो न समझा है, न समझेगा,
मगर कहना उसे...

मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा
आजन्म रही मेरे हिस्से 
निर्मम अँधियारों की सत्ता 
मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि 
मैं अनबाँचा अनलिखा रहा. 
मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर  
सदियों- सदियों ताले 
स्वर अट्ठहास के गूँज उठे 
जब मैंने अपना दर्द कहा. 
तुम किरन-किरन को क़ैद करो 
मैं सूरज नया उगाऊँगा .
 
गांव
मुझे दिख नहीं रही है 
धूल भरी पगडंडिया 
नहीं दिखता है मुझे  
गौ धूलि से भरा भरा वातावरण 
वो चिड़ियों की चहचहाट 
देर शाम बुजुर्गो का  
चौपाल पर जमघट और 
गप्पों शप्पों का दौर
 
 धन्यवाद।

7 टिप्‍पणियां:

  1. आभार भाई कुलदीप जी
    बेहतरीन अंक..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. अत्यंत सुंदर और सशक्त प्रस्तुति। हर एक रचना नव-प्रेरणा से भर देती है और सामयिक रचनाएँ जो हमें जागरूक बनाती हैं।
    नपुंसक हैं वो स्त्री को स्वयँ सशक्त होने का बहुत सुंदर सन्देश देता है। मुझे विशेष रूप से यह कविता अच्छी लगी। हृदय से आभार इस सुंदर प्रस्तुति के लिए व आप सबों को प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंदर आज की प्रस्तुति बहुत-बहुत आभार हमारी पोस्ट को शामिल करने के लिए आदरणीय कुलदीप जी

    जवाब देंहटाएं
  5. जो भोगा पग-पग वही लिखा
    जैसा हूँ मुझमें वही दिखा
    मैं कंकड़-पत्थर-काँटों पर
    हर मौसम चलने का आदी.
    वातानुकूल कक्षों में शिखरों-
    की प्रशस्ति के तुम गायक
    है मिली हुई जन्मना तुम्हें
    कुछ भी करने की आजादी.
    तुम सुख-सुविधा को मीत चुनो
    मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा.
    जैसी सशक्त रचना के साथ सराहनीय प्रस्तुति प्रिय कुलदीप जी। प्रतिभा जी के भावपूर्ण लेख और सभी काव्य रचनाएँ बहुत बढ़िया है। सभी रचनाकारों को नमन।। आपको बधाई और शुभकामनाएं 💐💐

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया लिंक्स । थोड़ी देर हो गयी प्रतिक्रिया देने में

    जवाब देंहटाएं

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