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गुरुवार, 17 अगस्त 2023

3852...जब उम्र निकल गयी ब्याज भरते-भरते...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय उदय वीर सिंह जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की पसंदीदा पाँच रचनाएँ-

नीति के दोहे मुक्तक

क्रोध  बैरी  आपन का, आपन ही तन खाय।

घर में सदा अशांति हो, रक्त  चाप बढ़ जाय।।

कब इनकार किया मैंने

मुझे बताने की आबश्यकता  नहीं समझी

क्या मैंने गलत किया

तुमने समझाया नहीं  मुझे

मुझे बड़ा दुःख हुआ

कौन देखता है।

जब उम्र  निकल गयी ब्याज भरते-भरते

कर्ज़ माफ़ हो जाए हिसाब कौन देखता है।

सरगोशियां हैं  कैद  हो गयी खिजाओं को,

मौसम  गुलाबी  हो गुलाब  कौन देखता है।

जीवन- एक रहस्य

जीवन एक सीधी रेखा पर नहीं

ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने का नाम है

यहाँ रुक गया जो

थक जाता है

चलने वाले को ही विश्राम है !

मृच्छकटिकम

मैं भी दौडूं सरपट उतना,

जितना यह चिल्लाए।

कठपुतली सा नचा-नचा के,

बुड़बक हमें बनाए।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


5 टिप्‍पणियां:

  1. हर प्राणी की यही गति है,
    मृच्छ कटिकम में अटका।
    शानदार अंक
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर अंक की बधाई और हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुसन्ध्या! सराहनीय रचनाओं से सजा सुंदर अंक, 'मन पाये विश्राम जहां' को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!

    जवाब देंहटाएं

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