शीर्षक पंक्ति: आदरणीय उदय वीर सिंह जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की पसंदीदा पाँच रचनाएँ-
नीति के दोहे मुक्तक
क्रोध बैरी आपन का, आपन ही तन खाय।
घर में सदा अशांति हो, रक्त चाप बढ़ जाय।।
मुझे बताने की आबश्यकता नहीं समझी
क्या मैंने गलत किया
तुमने समझाया नहीं मुझे
मुझे बड़ा दुःख हुआ
जब उम्र निकल गयी ब्याज भरते-भरते
कर्ज़ माफ़ हो जाए हिसाब कौन देखता है।
सरगोशियां हैं कैद हो गयी खिजाओं को,
मौसम गुलाबी हो गुलाब कौन देखता है।
जीवन एक सीधी रेखा पर नहीं
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने का नाम है
यहाँ रुक गया जो
थक जाता है
चलने वाले को ही विश्राम है !
मैं भी दौडूं सरपट उतना,
जितना यह चिल्लाए।
कठपुतली सा नचा-नचा के,
बुड़बक हमें बनाए।
हर प्राणी की यही गति है,
जवाब देंहटाएंमृच्छ कटिकम में अटका।
शानदार अंक
आभार
सादर
सुंदर अंक की बधाई और हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंसुसन्ध्या! सराहनीय रचनाओं से सजा सुंदर अंक, 'मन पाये विश्राम जहां' को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
जवाब देंहटाएंसभी लिंक्स पठनीय
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
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