यही तो पता नहीं है कब किनसे किनका साथ छूट जाएगा
किसके पास कितनी साँसें बची है कब डोर से पतंग कट जाएगा..
पटना आ गयी हूँ...
किसी ने गाड़ी को स्टार्ट कर छोड़ दिया है..
यह अनुभूति लगातार बनी हुई है दाहिने ओर सर में मेरे...
फैला हुआ है
यह सब, सिर्फ ,तुम्हें गूँगा करने की चाल है
क्या तुमने कभी सोचा कि तुम्हारा-
यह जो बुरा हाल है
इसकी वजह क्या है
इसकी वजह वह खेत है
जो तुम्हारी भूख का दलाल है
आह। मैं समझता हूं कि यह एक ऐसा सत्य है
जिसे सकारते हुए हर आदमी झिझकता है
इन प्रसंगों में कवि के ग्रामीण संस्कार खुलकर बोलने लगते हैं।
वह मुँह अंधेरे उठ गयी है
तुडे में विनौले मिलाती
भैसों को डाल रही सानी
थाण से उठाती गोबर
दिन चढे़ उपले थापेगी (पृष्ठ 10)
सवाल उठाने की बेचैनी इतनी कि कवि आगे बोल पड़ता है -‘देर मत करो पूछो/ आग दिल की बुझ रही है/ धुआं-धुआं हो जाए छाती इससे पहले/ मित्रों ठंड से जमते इस बर्फ़ीले समय में/ आग पर सवाल पूछो/ माचिस तीली की टकराहट की भाषा में... मित्रों उससे इतना जजरूर पूछो कि/ हमारे हिस्से की धूप/ हमारे हिस्से की बिजली/ हमारे हिस्से का पानी/ हमारे हिस्से की चांदनी का/ जो मार लेते हो रोज़ थोड़ा-थोड़ा हिस्सा/ उसे कब वापस करोगे/ मित्रों यह जिंदगी है/ आग पानी आकाश/ बार-बार पूछो इससे/ हमेशा बचाकर रखो एक सवाल/ पूछने की हिम्मत और विश्वास...’
कब? कहाँ कहेगा?,पता नहीं
स्थितियों,परिस्थितियों का
ध्यान नहीं रखेगा
क्या तुम्हें अच्छा लगेगा ?
हो सकता है
व्यक्तियों के समूह में
तुम्हारा मखौल उड़ाया जाए
आक्रोश की अभिव्यक्ति भी अगर कोई सोचे कि, वह किसी तय शुदा मापदंडों पर ही होगी तो यह भ्रम है । आक्रोश को आप ज्वालामुखी जानिये । उबलता रहता है अंदर अंदर, और जब उबाल निर्बंध हो जाता है तो फट पड़ता है । फिर चाहे गाँव के गांव जल जाएँ या लावा जहां तक भी जाए, फैलता ही रहता है । ऐसी ही प्रवित्ति है, आक्रोश की । जब फूटता है तो वह भी शब्दों की मर्यादा तोड़ कर ही निकलता है । इन कविताओं में शब्दों की मर्यादा टूटी है और कुछ शब्द असहज कर सकते हैं । पर यह प्रलाप क्यों ? आक्रोश का ही तो परिणाम है । पर आक्रोश क्यों ?? बस हम सब इसकी खोज में नहीं पैठना चाहते हैं । क्यों कि यह सारे आदर्शों को बेनकाब कर देगा, सारे सुसंस्कृत शब्दों को अनाव्रित्त कर देगा ।
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पुनः भेंट होगी...
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शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब
आभार..
सादर नमन..
बढ़िया अंक
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
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जवाब देंहटाएंIt always tells me about new things.
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बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार लिंक्स तथा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआक्रोश।
आक्रोश विषय पर इतनी सुंदर प्रस्तुति देने के लिए आभार प्रिय दीदी। आक्रोश मन की दमित कामनाओं का विस्फोट कहा जा सकता है। किसी अन्याय या अव्यस्था के प्रति उपजा असंतोष आक्रोश के रूप में क्रांति का उद्घोष अक्सर बहुत सार्थक सुधारों का मार्ग प्रशस्त करता है। आजके लिंक संयोजन में आजादी बरक्स लिंक ने मुझे अनायास दोपदी सिंगार की याद दिलादी
जवाब देंहटाएंजिसे उस समय मैंने शब्दांकन् पर पढ़ा था। । दोपदी सिंगार की यथार्थवादी सोच से बंधी रचनाओं ने कुछ साल पहले फेस बुक के जरिये कथित बुद्धिजीवी वर्ग को दो फाड़ कर दिया था। किसी को उनमें शोषितआदिवासी नारी वर्ग औरसमाज का नंगा सच स्वीकार्य ना हुआ और उसे दिल्ली में बैठे खुराफाती बुद्धिजीवियों की शरारत बताया तो किसी ने इसे जस का तस स्वीकार कर एक आदिवासी आक्रांत नारी का सशक्त स्वर माना। पर मुझे वो रचनाएँ आदिवासी समाज का वो जहरीला सच लगी जिसे देखने के लिए साधारण आँखें पर्याप्त नहीं। उसके लिए आदिवासी नज़र होना जरूरी है। वीभत्स सच्चाई शब्दों में पढ़ना इतना कष्ट दायक है तो सच मे कितनी भयावह होती होगी, ये सोचने की बात है। खासकर कथित नारीवादी - महिला रचनाकारों को दोपदी को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए। कोटि आभार और प्रणाम इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए🌹🌹🙏❤❤
क्षमा करें । ये चर्चा आज ही घूम पाई । आक्रोश वैसे ही आकर्षित करने वाला शब्द है ऊपर से पहले लिंक कवि धूमिल पर लिखा लेख ।आनंद ही आ गया । द्रोपदी सिंघार के विषय में रेणु ने पूरा विश्लेषण कर ही दिया है ।फेसबुक पर ही मैंने भी जाना था इनके बारे में । अजब गुलगपाड़ा मचा था । लोग फेक आई डी का दावा कर रहे थे ।
जवाब देंहटाएंआप चुन चुन कर आक्रोश के लिंक्स ले आयी हैं ।
आभार
दीदी 🙏🙏❤❤🌹🌹
हटाएंहमेशा की तरह रोचक अंक दी।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम।