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शनिवार, 24 अगस्त 2024

4226 ..कभी न भूलना यह क्षमा तुम्हें एक घायल क्षत्राणी से मिली है

 नमस्कार

आसमां को पा नहीं सकता,
तू जमी डिगा नहीं सकता।

हुनरमंद तो होते हैं सभी,
हर कोई आजमा नहीं सकता।

सीधे चलें रचनाओं की ओर




चाँद सुलाने आया
न सूरज जगाने
ना हीं
हवा ने कोई शोर किया
 हे कान्हा!
बात सिर्फ़ इतनी-सी थी
सूखे दरख़्त के कोंपलें फूटने लगीं
वह
राहगीरों को आवाज़ देने लगा





क्षमा तो मैं कर दूँगी तुम्हें
स्त्री जो ठहरी, दयामई, करुणामई, त्यागमई !
लेकिन यह कभी न भूलना
यह क्षमा तुम्हें एक घायल क्षत्राणी से मिली है





कुछ ही दिनों पहले रवि की माँ बेहद गम्भीररूप से बीमार पड़ी थीं। कुछ दिनों तक वेंटिलेटर पर रहना पड़ा था। आज वह अपनी माँ को पुनः जाँच के लिए अस्पताल लेकर गया था तो पाया कि सभी हड़ताल पर हैं।
 “सांप्रदायिक हिंसा, पैशाचिक कुकर्म अब यह सब समाज में बढ़ती घटनाओं पर क्या हमलोग मौन होकर अपने-अपने दायित्व को पूरा करते रहें! चुप रहने वाले अक्सर अनजाने ही सही अपराधी का हौसला बन जाते हैं, चुप्पी का सन्नाटा एक तरह से अपराधियों का साथ देना ही तो हुआ।”





माता जी को यह सुन कर बड़ा आश्चर्य भी हुआ कि मेरा लड़का इतना शान्त और सीधा है फिर इसमें इतना साहस कहाँ से आ गया। लेकिन उन्हें मेरी यह करतूत अच्छी लगी। फिर तो मधु के परिवार से हमारे रिश्ते ज्यादा गहरे हो गये। तब से रक्षाबन्धन पर प्रति वर्ष मधु मुझे राखी बाँधने लगी।





एक मात्र वस्तु की हैसियत रह गयी है
स्त्री !
जो संसार को पैदा करे अपनी कोख से
स्त्री !
जिसे संसार पुकारे करुणामयी शक्ति
स्त्री !






उर में मोहन की मूरत बसा लीजिए।
चाहते हाथ में हों अमृत के घड़े,
नफरतों से हृदय को हटा लीजिए।
है तुम्हारा भी स्वागत चले आइए,
हाथ में किन्तु सच की ध्वजा लीजिए।

आज बस
सादर वंदन

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