शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बादलों की पोटली से
टपकती बूँदों को देखकर
बंद काँच से टकराती
टिपटिपाहट मन में समेटकर
सूख चली अनगिनत स्मृतियाँ हरी हो रही है।
बचपन की बारिश आँखों में खड़ी हो रही है।
हवाओं की पाती भेजकर
भींगने संग बुलाती बारिश
फुहारें सोंधी खुशबुओं की
छींटती शीतलता लुभाती बारिश
छूकर मन, उम्र की दीवार से टकराकर,
बेआवाज़, बेरंग पानी की लड़ी हो रही है।
बचपन की बारिश आँखों में खड़ी हो रही है।
आइये आज की रचनाओं की दुनिया में-
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किसी के जाने के बाद
बीती स्मृतियों की टीस से भरा
ख़त तकरीबन रोज़ ही लिखे जाते हैं,
उनके जाने के निशान समय की बारिश में
फीके पड़ने तक...।
चहकती चिड़ियों और पतंगों वाला आसमान .
सूरज चाँद या सितारों वाला आसमान .
जिसकी खिड़कियों से देखा जा सकता था
सुदूर क्षितिज तक फैली धूप , हरियाली .
बादलों की गडगड़ाहट सुन नाचता मोर
या अनीति का शोर
खड़खड़ा उठती थीं खिड़कियाँ ,
विरोध में अनीति के ..
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वे बातें जो होना चाहती हैं
वे अपने न हो सकने में बताती रहीं
कि कितना ज़रूरी है न होना
सुंदर गज़ल
फूट ही जानें दो गुबार दिल का अपने।
आने दो लब पे थोड़ी बगावती बातें।।
लफ्जों की लागलपेट बस की नही मेरे ।
कर नही सकता मैं ये मिलावटी बातें ।
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मृत्यु शाश्वत सत्य है किंतु समयानुसार हो या
असमय किसी प्रिय की
साँसों का टूटना घात दे जाता है।
एक कच्चा फल टूटा,
मैं जानता था
कि हवाओं का दोष नहीं था,
न ही पत्थर चलाया था किसी ने,
पर उसका गिरना मुझे
उतना बुरा नहीं लगा,
जितना अपना नहीं गिरना
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प्रकृति के अद्भुत,गूढ़ रहस्यों को समझ पाना संभव नहीं
किंतु इतना समझना तो बेहद आसान है कि
प्रकृति के सारे उपहार जीवों के सहूलियत के लिए ही हैं।
मगर चातक निर्द्वंदी है। उसमें कोयल की तरह रिझाने का गुण नहीं और न ही उसे धरती के सरोकारों से कुछ लेना-देना है। चातक एक ऐसा जीव है जो टकटकी बांधे बस आसमान को निहारता रहता है। आसमान की छाती पर छाए बादलों में स्वाती नक्षत्र की बूँदें जो मचलती हैं। उन्हीं की प्राप्ति हेतु पपिहा पियो पियो पियो की अतिरंजित पुकार में खोया-खोया दिन-रात बिताने को मजबूर बना रहता है। समय कठोर है या अपने होने में पक्का, वह चातक की टेर पर अपनी चाल नहीं बदलता। जब तक स्वाती नक्षत्र की बेला नहीं आती तब तक चातक की टेर विरही मन और बादलों के सीने में एक विकंपित टीस उत्पन्न कर उन्हें विह्वल बनाती रहती है।
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और चलते-चलते
आपने भी सुना होगा
कोस-कोस में पानी बदले,चार कोस में वाणी...
विभिन्न संस्कृतियों से संपन्न हमारे देश के
निवासियों के रहन-सहन, खान-पान को जानना समझना
अत्यंत रोचक है।
शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद
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आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
सभी रचनाएं उम्दा ।मेरी रचना को मंच में स्थान देने हेतु आभार ।
जवाब देंहटाएंशानदार अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
मन मस्तिष्क सभी भूख की सामग्री मौजुद है
जवाब देंहटाएंबोले रे पपिहरा....को मंच प्रदान करने के लिए बहुत आभार आप सभी का 💐💐
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचनाओं से सजी लाजवाब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसूख चली अनगिनत स्मृतियाँ हरी हो रही है।
बचपन की बारिश आँखों में खड़ी हो रही है।
मनमोहक सामयिक भूमिका ।
उम्म्दा रचनाएं अनुपम प्रस्तुति
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