शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिनंदन।
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मत कर धर्म के नाम पर,
इंसानियत को शर्मिंदा बंधु
बन रहा है क्यों भस्मासुर
कर्मों से क्यों है दरिंदा बंधु?
न बन रे खेल का हिस्सा
मात्र तू मोहरा शतरंज का,
कोई धर्म नहीं सिखलाता
पाठ ईष्र्या, द्वेष और रंज का,
प्रेम से निहार ले धरती को
बन के देख प्रेम परिंदा बंधु।
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इस सृष्टि में पूर्णतया नष्ट कुछ भी नहीं होता,हर कण परिस्थितियों के घर्षण से स्वरूप बदल लेती है।
एक प्रेम ही है जो हर रूप में शांति और आत्मिक सुख की जादुई अनुभूतियाँ
सतत प्रवाहित करता रहता है।
यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो
जो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो
जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो
तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
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प्राचीन काल से ही
विविधतापूर्ण संस्कृतियों की समृद्धशाली परंपराओं
का वाहक है हमारा देश। भिन्न-भिन्न लोक उत्सवों
की भीनी सुगंध दैनिक जीवन के खुशियों
की चाभी है इसी सोंधी परंपरा की कड़ी में है-
गंगा जल में डुबकी मारे
साधक, ज्ञानी, दानी।
खरमास खतम, वैशाखी बिहू
पुथांडू, सतुआनी।
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समय के चाक पर बनते-बिगड़ते मनोभावों में
प्रेम स्थायित्व पाना चाहता है जीवन में
प्रतीक्षा बनकर-
शिकायत नहीं है मुझे
उससे
कि वह लौटा नहीं
फैसला मेरे हाथ में है
कि,किस तरह
फैसला मेरे हाथ में है
कि,किस तरह जीवन बिताना है
छुपकर रोते हुए
या खिलखिलाकर
खुरदुरे रास्तों को पूर कर
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कोयल का मीठा स्वर हृदय में हूक उत्पन्न करता है,लगातार
कटते वृक्ष, वातारण के प्रदूषण, पारिस्थितिकीय असंतुलन ने
पशु-पक्षियों के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
बेहद मासूमियत से सरल,सहज शब्दों में
पाठकों के हृदय तक पहुँचती कोयल की पुकार-
कू-कू करती कोयलिया
पत्थर के घर, पत्थर के जन,
पथरीली भावनाएं जहाँ है।
कंक्रीट के इस शहर में
कहो ! कैसे, तुम आई हो ?
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रंग बदलते मौसम का असर मन की भावनाओं में
आलोडन उत्पन्न करता है जिसके परिणामस्वरूप
प्रेम की आँच कविताओं में अभिव्यक्त होती है-
"इन तपती दोपहरों में..
तेरे आँचल की छाँव ही चाही..
जितनी दफ़ा, दिल उदास हुआ..
पनाह तेरी ही माँगी..
मिठास छलकाता..
टुकड़ा स्नेह का..
क्षण-क्षण पोसता..
रंग नेह का..
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और चलते-चलते पढ़िये एक
गहन भाव.लिए सारगर्भित अभिव्यक्ति-
सुख क्या है सिवाय इल्यूजन के. लेकिन इसमें आकर्षण बहुत है. हम जैसे ही सुख और दुःख से विरत करके खुद को एक ऐसी जगह रखते हैं जहाँ सूरज ढले तो अपनी पूरी धज से सूरज ही ढले, जहाँ झरनों की झर झर में झरे अपना मन भी कि कोई संवाद, कोई स्मृति इसमें शामिल न हो.
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आज के लिए इतना ही
कल पढ़िये विभा दी द्वारा संकलित
विशेष अंक।
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बच्चे धर्म से अखंइ इंसान ही होते हैं
जवाब देंहटाएंबड़े लोग उसे खंडित करते हैं
सुंदर अंक
सादर..
विविधता लिए बहुत ही सुन्दर सराहनीय अंक प्रिय श्वेता जी, मेरी एक प्रयास को भी इन बेहतरीन सृजन के संग स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं सादर नमस्कार 🙏
जवाब देंहटाएंसदा की तरह सुंदर संकलन!!!
जवाब देंहटाएंसच को बयां करती प्रभावी भूमिका
जवाब देंहटाएंसुंदर और सार्थक सूत्र संयोजन के लिए
साधुवाद
सम्मलित सभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मलित करने का आभार
सादर
सुंदर रचनाएँ 👌👌
जवाब देंहटाएंउल्लिखित भूमिका में शब्दों का अन्तःस्पन्दन प्रभावित कर हृदय को आलोडित कर रहा है। बस प्रेम परिंदे की तरह ही उड़ान भरना चाह रहा है ताकि धरती पर शांति हो। हृदयग्राही संकलन और प्रस्तुति के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ।
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