हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
जानना आसान होता है, मानना कठिन, और अपनाना ?
जयंती विशेषः क्यों हर लड़की को पढ़नी चाहिए राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा' ?
सदियों से कुछ नहीं बदला
एके माई बपवा से एक ही उदारवा में
दूनों के जनमवां भइल रे पुरुखवा
पूत के जनमवा में नाच आ सोहर होला
बेटि के जनम परे सोग रे पुरूखुवा
धनवा धरतिया पे बेटवा के हक होला
बिटिया के किहुओ ना हक़ रे पुरुखवा
गद्य में कहानियाँ, निबंध, यात्राएँ आदि सभी होते। पद्य में स्फुट कविताएँ ही हो सकती थी क्योंकि विस्तृत काव्य को कई अंकों में देने पर वह उतना रुचिकर न होता। मालूम ही है कि हिंदी मातृभाषा तो हम में बहुत थोड़े से लोगों की है। मातृभाषाएँ लोगों की मैथिली, भोजपुरी, मगही, अवधी, कनौजी, ब्रज, बुंदेली, मालवी, राजस्थानी आदि भाषाएँ है। इनमें से कौरवी छोड़कर बाकी सभी हिंदी से काफी दूर हैं। इस कारण हिंदी व्याकरण शुद्ध लिखना बहुतों के लिए बहुत कठिन है।
जब अचानक लगता है कि सब कुछ समाप्त होने वाला है, तो व्यक्ति चौंक जाता है और किसी अदृश्य प्रभु या जीवनी शक्ति से गुहार लगाता है- ‘जिन्दगी अभी छोड़कर मत जाओ। मुझे थोड़ी मोहलत दो। अनदेखी जगह घूम आऊं। कुछ अधूरे काम निपटा लूं।’ गुस्ताव फ्लाबेर ने भी यात्राओं के बारे में कुछ ऐसा ही कहा है, ‘यात्रायें हमें विनम्र बनाती हैं क्योंकि हम जान जाते हैं कि दुनिया में हमारा अस्तित्व कितना नगण्य है।’
परख : किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ)
स्पिनोज़ा : नीतिशास्त्र - ५ – (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)
महेश वर्मा की कविताएँ
सबद भेद : विद्रोही की काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध : संतोष अर्श
कथा- गाथा : क से ‘कहानी’ ज से ‘जंगल’ घ से ‘घर’ : कविता
मति का धीर : राहुल सांकृत्यायन : विमल कुमार
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह..
सादर नमन
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनए लिंक और नई रचनाओं से युक्त हमेशा की तरह सुंदर अंक ।
जवाब देंहटाएंजरूर पढ़ूंगी ।
आपको मेरा सादर अभिवादन।
माँ की कृपा सब पर बनी रहे
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंइस विशेष संकलन को सुरक्षित कर लिए हैं दी अभी पढ़ नहीं पाये हैं।
जवाब देंहटाएंप्रणाम दी
सादर।