शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स लेकर हाज़िर हूँ।
जब भी मैं
कहीं जाती
तेरी यादों
मैं खोई रहती
इस तरह कि मैं भूल
ही जाती
क्या करने आई
थी क्या कर डाला |
मन जब निराश हो चले
तब कालिमा अघोर है।
सहचर सुमित्र साथ हो।
आनंद तब अथोर है।।
इस इमारत में कोई
नहीं रहता,
यह बस कूदने
के काम आती है,
इमारत का दिल
बहुत धड़कता है,
जब कोई उसकी
सीढ़ियाँ चढ़ता है.
गोल गोल होती
हूं मैं पर
लंबी भी हो
सकती हूं,
दोनों लोगों
संग नाच-नाच कर
अपना भेष
बदलती हूँ। ।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
आनन्दित कर गया आज का अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
शानदार अंक. आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंThanks for their lovely postd
जवाब देंहटाएंpl
बहुत सुंदर सराहनीय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिंक सुंदर भूमिका, सुंदर अंक।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं बहुत आकर्षक।
सभी रचनाकारों को बधाई।
मेरी रचना को पाँच लिकों पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार।
सादर सस्नेह।
एक से बढ़कर एक लिंक, रोली अभिलाषा की रचना ने दिल जीत लिया। सभी को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी पहेलियों को भी जगह देने के लिए सादर आभार
बढ़िया सूत्र संयोजन । आभार ।
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