जय मां हाटेशवरी....
सुनकर कुछ अजीब सा लगता है....
"2002 में लिखी एक साध्वी की चिठ्ठी ने....
2017 में...बाबा राम रहीम के कुकृत्यों का पर्दाफाश किया...."
वो भी आज के समय में....
जब सोशल मीडिया इतना तीव्र है....
क्या ये डर था....
किसी ने भी मुंह न खोला....
क्या ये आस्था थी....
भगवान का दूत है, कुछ भी कर सकता है....
क्या डेरे में रहने वाला कोई भी व्यक्ति संवेदनशील नहीं था....
किसी को इन असहाय बेटियों की सिसकियां तक भी सुनाई नहीं दी....
क्या पुलिस या प्रशासन सोया हुआ था?...
ये एक डेरे की हकीकत.....
प्रशासन को आगाह कर रही है....
प्रत्येक डेरे, छात्रावास में भी....
कहीं ऐसी सिसकियां भी दबाई तो नहीं जा रही है...
ये असुरक्षा डेरों या छात्रावासों की इन चार दीवारियों के इलावा....
कई घरों की चार दीवारियों में भी है....
जहां पिता, भाई या ससुर भी....
घर की बेटी, भहन या बहू पर....
कुदृष्टि रखते हैं....
परिवार की मर्यादा या लाज....
उनकी सिसकियों को भी दबा देती है....
दो दिन पहले अमर उजाला में एक खबर थी...
"पिता आठवीं में पढ़ रही अपनी ही बेटी से रेप करता रहा....
बेटी गर्भवती हो गयी थी...."
इन जैसे न जाने कितने राक्षस होंगे....
जिनके लिये महिला केवल उपभोग की वस्तु है....
रिशते या मर्यादा कोई माइने नहीं रखते...
जिनकी बहनें, बेटियां, बहुएं....
मौन रहकर सब कुछ सहती होंगी....
बुदधि जिवियों, मिडिया को भी....
इन की सुरक्षा के बारे में अवश्य सोचना होगा....
दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती,
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है|
सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती,
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है|
शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को,
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है|
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है|
इस रचना के साथ...पेश है आज की प्रस्तुति...
माँ बाप को निकाल के घर, खेत बेच कर
बेटे हिसाब कर के बराबर चले गए
सूखी सी पत्तियाँ तो कभी धूल के गुबार
खुशबू तुम्हारी आई तो पतझड़ चले गए
खिड़की से इक उदास नज़र ढूंढती रही
पगडंडियों से लौट के सब घर चले गए
पूजा" के बाद"आरती "करने के निहितार्थ क्या हैं ?क्यों की जाती है किसी भी पूजा के सम्पन्न होने पर आराध्यदेव की आरती
गर्भ गृह हमारे हृदय की गुफा की तरह हैं जहां एक साथ ईश और हमारे अज्ञान का अन्धकार है। आरती में कपूर जलाये जाने का एक विशेष अर्थ यह रहता है -कपूर पूरा जल जाता है। दहन सौ फीसद होता है। शेष कुछ नहीं बचता कार्बन (कालिख ),के रूप में। हमारा अज्ञान नष्ट हो अपने ब्रह्म स्वरूप को निरंजन (बिना कालिख)होने को हम जान सकें। आखिरकार एक ही चेतन परिव्याप्त है सृष्टि में। करता और करतार एक ही हैं। किर्येटर एन्ड किरयेशन आर वन एन्ड देअर इज़ नो सेकिंड। देअर इस आनली गॉड।
उसने अंधेरों में हीं जो घर बनाना चाहा
जिन रास्तों पे चलते हौसला पस्त हुआ
उन्ही रास्तो ने हुस्ने मंज़िल दिखाना चाहा
रंजे नाकामी जो जिगर से निकल न सका
हक़ जताते पूरे जिस्म को तड़पाना चाहा
मेहनतकश था वो हमेशा कफन में रहा....
कोई बात थी मुहल्ले में पुलिस उठा ले गयी
कमजोर बेबस सा समाज का जख्म सा रहा
योजनाएं बहुत सी तामील हुई उसके हक की
पर जब भी दिखा उजाले में बस नग्न सा रहा
human values / nuisance values
प्रकृति तो कहती है कि बलवान ही शेष रहेगा। इसलिये किसके पास कितना हो, यह हम सभी को निर्धारित करना होगा। समाज के पास कितने मानवीय मूल्य और कितने उपद्रव-मूल्य हों तथा शासन के पास कितने हो, यह बहुत ही समझदारी का विषय है। आज के संदर्भ में हमें इस बात पर गौर करना ही पड़ेगा।
धन्यवाद।
शुभ प्रभात भाई कुलदीप जी
जवाब देंहटाएंएक श्रेष्ठ प्रस्तुति
साधु..साधु
सादर
निशब्द हूँ
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचनाओं का चयन..
चय
सुप्रभात।
जवाब देंहटाएंभाई कुलदीप जी एक जलते हुए सवाल पर अपनी भावोत्तेजक ,विचारणीय भूमिका के साथ आज का अंक पेश कर रहे हैं।
सभी रचनाएं अच्छी हैं ,कुछ न कुछ कहती हैं।
स्त्री संबंधी मुद्दों पर गंभीर विमर्श वांछनीय है।
हम सब बाज़ारवाद का शिकार बन गए हैं।
व्यावसायिक सोच का केंद्रीय भाव लाभार्जन होता है।
इस सोच के पीछे छिपी चालाकी ने समाज को कुछ ऐसा परोसा कि हम बेख़ुदी में इसके आग़ोश में आ गए ,होश आने पर ख़ुद को लुटा -पिटा महसूस कर रहे हैं।
यह राष्ट्रीय-चरित्र का घोर संकट हमारे सामाजिक मूल्यों से परे हटने,संस्कारहीनता और चयनवादी सोच ने विकसित कर दिया है।
मासूम बचपन के लालन-पालन के तौर-तरीक़े बदले ,बुज़ुर्गों की घोर उपेक्षा शुरू हुई ,बच्चे बड़ों से कुछ सार्थक सीखने की बजाय जबरन टीवी-कार्यक्रमों और वीडियो-गेम में उलझा दिए गए और वे पुरानी पीढ़ी का मज़ाक बनाने लगे।
क्योंकि पुरानी पीढ़ी अति आधुनिकता के ख़तरों से आगाह थी लेकिन सूचनाओं और तकनीक के सैलाब में उसकी जीवन दर्शन संबंधी शोध के परख़च्चे उड़ गए।
समाज की मूल इकाई परिवार है अतः परिवारों में महिला के प्रति सम्मान भाव को पुनर्स्थापित करने की सार्थक पहल हो तभी हम क़ानून की सख़्ती की बात कर सकते हैं।
न्याय -व्यवस्था की ख़ामियों के चलते असामाजिक तत्वों को निस्संदेह बढ़ावा मिल रहा है।
यह समस्या चुटकियों में हल होने वाली नहीं है जहां रिश्ते तक कलंकित हो चुके हों उस समाज को आइना दिखाना भी अब डरावना होता जा रहा है ...... लेकिन हमें अपने सार्थक प्रयास ताक़ पर नहीं रखने होंगे।
भाई कुलदीप जी बहुत-बहुत बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए।
सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।
आभार सादर।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति कुलदीप जी।
जवाब देंहटाएंचिंतन शील रचना के साथ आज की हलचल ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी ग़ज़ल को जगह देने के लिए ...
बहुत सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंआदरणीय कुलदीप जी,
जवाब देंहटाएंआज का अंक ज्वलंत विचारोत्तेजक मंथन को मजबूर करता हुआ।समाज का ये चेहरा सबसे वीभत्स है।
बहुत ही शानदार एक से बढ़कर एक रचनाओं के लिंक प्रस्तुत किये है आपने।सराहनीय संयोजन के लिए आभार आपका।
बहुत अच्छी चिंतनशील हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंचिंतनशील और विचारोत्तेजक रचनाओं का संगम. आदरणीय कुलदीप जी सादर धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसदा की तरह उम्दा
जवाब देंहटाएंअच्छा संकलन
जवाब देंहटाएंआदरणीय कुलदीप भाई ने भूमिका में जो विषय रखा है वह ज्वलंत भी है और जी को जलानेवाला भी। द्रौपदी के युग से आज के युग तक स्त्री इस अग्नि में जलती रही है....इस विषय पर अनंत बहस हो सकती है, विचार विमर्श हो सकते हैं.... जी हाँ, अनंत !!!
जवाब देंहटाएंफिर भी क्या निकल पाता है उनसे ? जरूरत है कि हर कलम अब स्त्री शक्ति को लिखे । हर जगह सिर्फ स्त्री शक्ति की बात हो । इतनी बार हो कि 'ब्रेन वाश' हो जाए उस समाज का, जिसने इन दो पंक्तियों को रट रखा है -
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी !"
आदरणीय कुलदीप भाई ----- आजके लिंकों की रचनाये तो हमेशा की तरह सार्थक हैं पर भूमिका तो लाजवाब है और आँखें खोलने वाली हैं | उसमे उठाये गये प्रश्नों का उत्तर कौन देगा ? जितनी दुनिया कथित 'सभ्य '' और 'शिक्षित 'होती जा रही है उतनी ही महिलाएं असुरक्षित होती जा रही हैं | और तो और तदा - कदा पिता , भाई , दादा के हाथों लुटती बच्चियों की अस्मत की ख़बरों से जी दहल जाता है | उन बेटियों , बहनों , और पोतियों को कौन सांत्वना देगा > और क्या सचमुच वे कभी किसी पुरुष पर भरोसा करने लायक रह जायेगी --जिन्होंने अपने ; कथित ' रखवालों ' को बलात्कारी के रूप में अपने घर में ही देखा है ? घर में उसकी सुरक्षा नहीं तो बाहर के लोगों की बात ही क्य!!!!!!!!!!! बाहर की दुर्घटना पर सरकार को दोषी ठहरा दिया जाता है पर चारदीवारी के भीतर की अनहोनी की जिम्मेवारी कौन लेगा ? इसका कुछेक हल तो साबधानी में है | माएं अपनी बेटियों के लिए सतर्क रहें उनके हक़ के लिए लादेन और उन्हें उचित शिक्षा और मार्गदर्शन से सबल बनाये | तभी कुछ हद तक ये समस्या कम हो पायेगी | दानुत अच्छा लगा इस सार्थक चिंतन भरी चर्चा से | सस्नेह शुभकामना आपको
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कृपया लादेन नहीं लड़ें पढ़े -- गलती के लिए खेद है -----
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