हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
भले बदला
पुराना हो गया हो,
पर हिसाब नया लिया कीजिये !
देखोगे, सौ बार मरूँगा
देखोगे, सौ बार जियूँगा
हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका खून पियूँगा
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन – जन में जो ऊर्जा भर दे, उदगाता हूँ उस रवि का।
ना दोस्त है कोई न कोई दुश्मन,
आखिर इस दुनिया में कर क्या रहे हैं...
बात बस नजरिये की है
काफी अकेला हूँ….या दुश्मन के लिए अकेला काफी हूँ...
गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं
आँखों से आँसुओं के दो कतरे क्या निकल पड़े,
सारे दुश्मन एकदम खुशी से उछल पडे़
सुरभि को वह कभी राजी नहीं कर सकती थी, कि तू लिंग परीक्षण करवा ले जिसके लिए उन्हें इंदौर से दिल्ली बुलवाया गया था न ही उसकी सास को कुछ समझा सकती थी। वो जानती थीं कि सुरभि गलत नहीं है वह खुद एक स्त्री हैं और लड़की हो या लड़का उससे क्या फर्क सभी ईश्वर की देन है, नियति को बदलना गलत होगा। अंतर्मन से वह सुरभि के साथ हैं ,क्योंकि उन्हें खुद तीन बेटियाँ हैं, सुरभि उनमें सबसे छोटी है और पापा के लाड़ का बेटा भी। उसकी परवरिश उसके पापा ने एक बेटे जैसी करी थीं पापा ने उसे सभी चीजों में आगे रखा और ऑफ़िसर बनाया अपने पैरों पर खड़ा किया सुरभि अपने पापा के लिए एक बेटे के समान स्थान रखती थी।
हर शख्स है खुदा बनने में मशरूफ
ये तमाशा भी खुदा भी देख रहा है
खोपड़ी की झोपड़ी हिलाया न कर
यह तेज़ आवाज़ में अप्रिय बातें कहने का रिहर्सल था. फिर लड़की ने पूछा कि पहले सरकार ब्रेड क्यों बनाती थी और होटल क्यों चलाती थी तो मन हुआ कि कह दूँ कि अरुण शौरी उन्हें दलाली लेकर बेच सकें इसलिए, लेकिन तभी यह ख़याल आया कि सरकारी ब्रेड की मिठास लुब्रिकेशन की तरह खत्म है तो मैंने बुलंद आवाज़ में कहना शुरू किया कि तब तीसरी दुनिया के किसी भी देश में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन करने लायक कांफ्रेंस हॉल और शामिल देशों के प्रमुखों को टिकाने की जगह नहीं थी. आईटीडीसी का दिल्ली वाला होटल इसीलिए बना था. फिर यह जानते हुए कि कितना भी तेज़ बोलूँ, यह बात किसी को सुनाई नहीं देगी, मैंने कहना शुरू किया कि प्रतिकार के लिए कभी-कभी पाँच सितारा होटल भी बनाना पड़ता है. फिर मैंने पेड़ के अजीब की तरह कहा कि प्रतिकार भी करें हम रचना भी करें और बाँध की तरह कहा कि हमारी रचना हमारा प्रतिकार और शब्द सागर की तरह कहा कि प्रतिकार रचना होता ही है.
लोग कहते हैं कि हम पत्थर दिल हैं,
पत्थरों पर लिखे नाम कभी मिटते नहीं।
अधिकांशतः स्त्री-कविता की पहचान पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा में पढ़ी जाती हैं किन्तु यहाँ आदिवासी समाज का हाशियाकरण, उसे एक अतिरिक्त आयाम देता है। यहाँ हिंसा के कई रूप हैं और लड़ाई उतनी ही गहरी। आज़ादी के लगभग सात दशक बाद भी यह जन-समाज राष्ट्र की मुख्यधारा में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाया है। राजनीति और बाज़ार ने उनकी असुरक्षा को तीव्रतर ही किया है। विकास के नाम पर षड्यंत्रों का शिकार होते हुए इन आदिवासियों को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है।
बधाइयां,
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं और
न जाने क्या -क्या
इतना प्यारा अंक
हमेशा की तरह अनूठा अंक
आभार
सादर नमन
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसारगर्भित प्रस्तुति.. धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
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