----
धर्म हो या अधर्म,
कोई भी विचार जब तक स्वविवेक से
न उत्पन्न हुआ हो, तबतक धूलकणों की आँधी मात्र होती है
जिसमें कुछ भी सुस्पष्ट नहीं होता है।
उधार का ज्ञान किसी भी विषय के अज्ञान को ढक
सकता है समाप्त नहीं कर सकता।
अंधश्रद्धा, कल्पना,आडंबर और ढोंंग का
आवरण जब कठोर हो जाता है तो आत्मा की कोमलता और
लचीलेपन को सोखकर पूरी तरह अमानुषिक और कट्टर
बना देता है।और अगर धर्म की "कट्टरता"
मानवता से बड़ी हो जाती है तो
उस व्यक्ति के लिए परिवार, समाज या देश से
बढ़कर स्व का अहं हो जाता है और वह
लोककल्याण,परोपकार जैसे मानवीय गुण को अनदेखा कर,
अपने लोग,अपनी जाति का चश्मा पहनकर सबकुछ देखने
लगता है।धर्म का अधकचरा ज्ञान
ऐसे विचार जिसमें उदारता न हो, उसमें हम अपनी आत्मा की नहीं,
छद्म ज्ञानियों के उपदेश से प्रभावित होकर
उनके स्वार्थपूर्ति का साधन मात्र रह जाते हैं।
काश कि हम समझ पाते कि हम अन्य मनुष्यों की भाँति ही एक
मनुष्य सबसे पहले हैं,
किसी भी जाति या धर्म के अंश उसके बाद।
★★★★★★★★
आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
जश्न नहीं मनाना
भूलो
हे दुर्घर्ष, संघर्षशील!
मोड़ दे जो काल को,
वह गति हो तुम!
सनातन संस्कृति की
शाश्वत संतति हो तुम!
-----//////------
मेरी नागरिकता की पहचान
उसी दिन घोषित हो गयी थी
जिस दिन
दादी ने
आस-पड़ोस में
चना चिंरोंजी
बांटते हुए कहा था
-------///////-----
बापू की पेंसिल
------/////----
बेहतरीन प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंसादर..
जोरदार
जवाब देंहटाएंआज के लिंक्स में सबसे प्रभावशाली रचना है गोपेश जी की "एक और तमस"
समाज हर एक पक्ष का काला सच शब्दों में पिरोकर पेश किया गया है।
सारी रचनाएँ उम्दा है।
"मेरी नागरिकता की पहचान माँ के पेट पर पड़ी अमिट लकीरों से है" खरे साहब के ये भाव करारा तमाचा है नकली कानून और सोच पर।
उम्दा चयन... जो हलचल का मान बनाये रखेंगे।
वाह
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्तुतीकरण
बहुत शानदार प्रस्तुति भूमिका में चिंतन देता सुंदर लेख ,मानव बस मानव ही रहता तो श्रृष्टि के लिए कल्याणकारी होता , अभिमान या नाम या फिर आत्मवंचना के तहत सदा द्वंद में घिरा रहता है, बहुत शानदार भूमिका।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं बहुत आकर्षक।
सभी रचनाकारों को बधाई।
आदरणीया दीदी जी सादर प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंभूमिका में आपने जो संदेश दिया वह आज के समय की माँग है। उचित कहा आपने। सुंदर प्रस्तुति संग लाजवाब अंक।
पाँच लिंकों का पंचशील.
जवाब देंहटाएंअनंत आभार सखी.
बापू की पेंसिल के ज़रिये बापू की बातें याद करने की कोशिश है.
कभी-कभी लगता है, हम बापू के सिखाए छोटे-छोटे पर बड़े जीवन सूत्रों को भूल गए.
उन्हें बस नोटों में देखना और इस्तेमाल करना याद रहा.
एक और बात है.
जवाब देंहटाएंनागरिकता की पहचान बहुत ही संवेदनशील कविता है. पर इस कविता में जो बात की गई है, वह नागरिकता नहीं अस्तित्व का विषय है. निश्चित रूप से वह पहचान विधाता ने दी है इसलिए अमिट है. उसकी बात हो ही नहीं रही.
नागरिकता अवश्य कागज़ी उपक्रम है. सुचारू व्यवस्था के लिए अनिवार्य है.
हर देश के नागरिक के पास ये कागज़ होते हैं.
ये किसी भी तरह हमारे अस्तित्व और नागरिकता पर हमला नहीं हैं.
कमियां हो सकती हैं. उन्हें सुधारने के लिए आन्दोलन नहीं, सद्भावना सहित सुझाव देने की आवश्यकता है.
शानदार भूमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति श्वेता जी ,सभी रचनाकारों को ढेरों शुभकामनाएं एवं सादर नमन
जवाब देंहटाएंसुंदर।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंक्स चयन एवम प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति में मेरी रचना को स्थान देने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय श्वेता दी.
जवाब देंहटाएंसादर
शानदार भूमिका के साथ लाजवाब प्रस्तुति एवं उत्कृष्ट लिंकों का संकलन....।
जवाब देंहटाएं