वासन्ती उपहार लिये कब,आओगे गांव हमारे मधुवन
महकाने, हर्षाने जगती, आह्लादित करने वन, उपवन
व्यग्र शाख पर कोंपल,मुस्कान बिखेरें कैसे
बंजर मरू धरा का मन,हरा-भरा हो कैसे
कैसे आलोक बिखेरे,अंशुमाली कण-कण..
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दयानंद पांडेय
समझ नहीं पाता कि पंडितों से चिढ़ने वाले लोग , पंडितों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। ऐसे पंडित अगर पढ़े-लिखे होते तो यह और ऐसा काम भी नहीं करते। क्यों करते भला , इतना अपमानजनक काम। नहीं देखा कभी किसी
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मेज के आर पार पड़ी रहती है एक मुश्त
शाम की मद्धम रौशनी, चीनी मिट्टी
के दो ख़ाली प्यालों पर ओंठों के
अदृश्य निशान, रेत का इक
टूटा हुआ बांध, बुझी हुई
एक मोमबत्ती, कुछ
मुरझाए से लाल
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ज़िन्दगी भारी, उधारी की तरह।
चैन के पल हो गए हैं भूमिगत
एक मुजरिम इश्तिहारी की तरह।..
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आ गई फिर से दुबारा,
भूली बिसरी याद कोई।
कह सके हम जिसको अपना,
ऐसा न था नाम कोई॥
सपनों की सी बात लगती..
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।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुन्दर सूत्रों से सजी प्रस्तुति में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदयतल से आभार पम्मी जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकट रही जिन्दगी सुपारी की तरह ..
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