हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
‘नकेन’ शब्द नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और श्री नरेश के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना है ।
उन्होंने यह भी कहा: “आलोचनात्मक विवेक उनकी इतिहास-दृष्टि की केन्द्रीय विशेषता है.” लेकिन विधेयवाद संबंधी आरोप को छोड़ दें, तो भी नलिन जी जिस भारतीय इतिहास-दृष्टि की बात करते हैं और उसके उदहारण के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास को रखते हैं, वह क्या विचारणीय नहीं है? जब साहित्येतिहास के क्षेत्र में शुक्ल जी की दृष्टि की ही प्रधानता थी, तब नलिन जी ने साहित्येतिहास के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि का प्रश्न उठाया.
अपनी एक पुस्तक –‘द यूज ऑफ पोएट्री एण्ड द यूज ऑफ क्रिटिसिज़्म’ में इलियट ने लिखा है- मुझे लगता है कि कवि यह मानता है कि उसकी कुछ सामाजिक उपयोगिता है। लेकिन मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उसे धर्म-विज्ञान, उपदेशक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री या अन्य किसी रूप में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। वह कुछ भी कर सकता हैं, किन्तु जब वह कविता लिखता है तो कविता ही लिखनी चाहिए कविता जो कविता के रूप में मान्य हो, न कि किसी अन्य रूप में।
जब हिंदी में इतिहास-दर्शन की चर्चा से प्रायः लोग अनजान थे, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखकर इतिहास-लेखन की आधारभूमि को मजबूती दी थी। वे मानते हैं कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास है। बड़े-बड़े लेखकों के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखनेवाले इतिहास-दृष्टि से भिन्न यह नयी इतिहास-दृष्टि थी। समाज या राष्ट्र का इतिहास राजाओं का इतिहास नहीं बल्कि जनता का इतिहास है, इस कथन से नलिन जी के कथन को मिलाकर देखना चाहिए, तब उनकी इतिहास-दृष्टि की सामाजिकता और व्यापकता दिखाई देगी।
अधिक-से-अधिक तब के गुमनाम से उपन्यास ‘मैला आँचल’ को कालजयी उपन्यास के रूप में पहचान दिलाने वाले आलोचक के रूप में याद किए जाते हैं. हिंदी के इतिहास दर्शन की चर्चा जब न के बराबर थी तब ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसी किताब लिखने वाले आलोचक के रूप में भी उनका नामोल्लेख होता है. और किसी प्रसंग में उन्हें याद करते या उन्हें उद्धृत करते प्राय: नहीं देखा-सुना जाता . ऐसा क्यों है; जबकि वे हिंदी के ‘सिगनिफिकेंट’ आलोचक हैं? दुनिया सोवियत और अमेरिकी शिविर में बंटी हुई थी. राजनीतिक रूप से दो सिरों में विभाजित विचारधारा का प्रभाव दुनिया के साहित्य पर भी था. माना जाता था कि या तो आप प्रगतिशील हैं या गैर-प्रगतिशील.
‘दृष्टिकोण’ (1947),‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ (1960),‘मानदंड’ (1963),‘हिन्दी उपन्यास : विशेषतः प्रेमचंद’ (1968),‘साहित्य: तत्त्व और आलोचना’ (1995) उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं ।हिंदी में इतिहास-दर्शन जैसे गंभीर विषय पर लिखने वाले वे पहले व्यक्ति हैं । सभी तरह के नए-पुराने विषयों और विश्व के श्रेष्ठ साहित्य पर उनकी एक समान पकड़ थी । जिस अधिकार से वे कालिदास पर लिखते थे, उसी अधिकार से अपने समकालीन अज्ञेय आदि पर भी । रूसी कथाकार तुर्गनेव,दास्ताव्स्की, फ्रांसीसी उपन्यासकार आन्द्रे जींद, इंग्लैंड के गल्पकार आर्थर कोयस्लर और टी.एस. एलियट जैसे बड़े रचनाकारों पर लिखने वालों में भी संभवतः वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं ।
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जवाब देंहटाएंनकेन उर्फ नविश
साधुवाद
सादर नमन