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शुक्रवार, 7 जून 2024

4150....बारिश अच्छी लगती है लेकिन....

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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गलत होकर ख़ुद को सही साबित करना उतना मुश्किल नहीं होता जितना सही होकर ख़ुद को सही साबित करना।

संकेत की भाषा पढ़ने के लिए दृष्टिभ्रम से बाहर निकलना होगा वरना हम जो देखना चाहते हैं वही देखने के प्रयास में उलझे रह जायेंगे....।

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 व्यक्तिगत बुद्धिमत्ता के प्रदर्शन का प्रचलन।
गतिशील परिदृश्यों में अनवरत प्रश्नों का तरन ।

स्पंदित विचारों का स्थान घेरती मृत शब्दावली,
महत्वकांक्षी रिसाव, बौद्धिक क्षुद्रता का वरण।

बाज़ार लगा रखा है हमने भीतर से बाहर तक,
ज्ञान की प्याली में उफ़ान या विवेक का क्षरण?

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आज की रचनाएँ



प्रकृति का सम्मान करो
वसुंधरा का तुम ध्यान धरो
मेरा मन भी बहुत रोता है
दुख मुझको भी होता है
अब तो मुझको ना काटो
टुकड़ों टुकड़ों में ना बांटो 




कुछ पक्षी मर रहे हैं, कुछ लुप्त हो रहे हैं।
फूल मुरझा गए हैं, हवा दूषित है,
नदियां रो रही है, वो भी प्रदुषित हैं।
सोचता है मानव, वो विकास कर रहा है,
पर प्रकृति का संतुलन, बिगड़ रहा है।
मेरी नींव कमजोर हो रही है, धीरे-धीरे,
मैं खिसक रहा हूँ, धीरे-धीरे।

अटूट बल सावित्री के तप का 
सूत के उस धागे में रचा-बसा 
जो बांधा गया बरगद के तने से 
परिक्रमा और प्रार्थना करते-करते 
यमराज को भी कर दिया वचनबद्ध ।
वचन तुमने भी भरे थे सत्यवान !




ना लुत्फ़ अंजुमन में ना महफ़िलों में रंगत
दिल बुझा-बुझा सा लगे सांय-सांय हर तरफ
ना कुछ ख्वाहिशें बचीं ना कुछ अरमान बाकी है 
ज़िन्दगी होगी बसर किस तरह सोच मन में उदासी है।
उदासी का कोई सबब नहीं क्यों बे-हिस लगे ज़िन्दगी 
शाम लगे धुआं धुआं कोई ऐसा नहीं हो जिससे दिल्लगी




बारिश अच्छी लगती है लेकिन घर में ही . बाहर मुझे बहुत डर लगता है . भीगने का नहीं ,बादलों के कर्णविदारक तुमुल घोष और रोष दिखाती बिजली का .ऑटो में बौछारों से बचाव की कोई तैयारी नही थी . यानी हमें एक घंटे का रास्ता बूँदों के प्रहार सहते हुए ही तय करना था . हम इसी चिन्ता में थीं कि ऑटो वाले ने एक एक जगह सी एन जी के लिये ऑटो खड़ा किया और हमारे अधिक से अधिक तीस सेकण्ड बाद ही पीछे बड़ी जोर की आवाज व चीख पुकार सुनाई दी . ऑटो वाले ने घबराकर कहा—"हे वैंकटेश्वरा दो तीन तो गए .

और चलते-चलते

चूँकि सुषमा झा का यदाकदा .. विशेष कर इस साहित्यिक संस्था के किसी भी तथाकथित सामाजिक या साहित्यिक कार्यक्रम के पश्चात माला भटनागर जी के घर उनकी कार में बैठ कर आना-जाना लगा रहता है .. कभी प्रेस विज्ञप्ति को तैयार करने के लिए, कभी कार्यक्रम के बाद बचे 'बैनर'-'पोस्टरों' या अन्य बहुउपयोगी सामानों को माला जी के घर तक सहेजने के लिए या फिर कभी-कभी उनके विशेष आग्रह पर संस्था के जमा-खर्च के हिसाब-किताब वाली 'रजिस्टर' को 'मेन्टेन' करने के लिए ; अतः उन्हें माला जी के घर वाले नक़्शे के चप्पे-चप्पे के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हासिल है।


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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6 टिप्‍पणियां:

  1. जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. मेरी लम्बी व उबाऊ बतकही को अपनी रोचक प्रस्तुति में स्थान प्रदान करने हेतु ..
    बहुआयामी समसामयिक विषयों से लबरेज़ आपकी आज की प्रस्तुति में उपस्थित रचनाओं के साथ-साथ आपकी भूमिका भी मानव जीवन के कार्यक्षेत्र या यूँ कहें कि कर्तव्यक्षेत्र वाले संवेदनशील गूढ़ विषयों को .. बचपन वाले 'बाइस्कोप' की तरह दर्शन कराती हुई .. एक दर्शनशास्त्र की कक्षा की तरह ही है .. शायद ...

    जवाब देंहटाएं
  2. व्यक्तिगत बुद्धिमत्ता के प्रदर्शन का प्रचलन।
    गतिशील परिदृश्यों में अनवरत प्रश्नों का तरन ।

    स्पंदित विचारों का स्थान घेरती मृत शब्दावली,
    महत्वकांक्षी रिसाव, बौद्धिक क्षुद्रता का वरण।
    शानदार आगाज
    आभार
    सादर वंदन

    जवाब देंहटाएं
  3. सभी लिंक पढ़े। शुरु में आपकी काव्य पंक्तियाँ भी। मेरी रचना भी शामिल है। बहुत धन्यवाद श्वेता जी

    जवाब देंहटाएं
  4. आप कहती हैं ..आज के लिए बस इतना ही ....पर श्वेता जी, इस क्यारी में बहुत हरियाली है, विचारों के बीज बोये हैं आपने. मौसम सोच में डूबा पर खुशगवार है. सभी रचनाकारों को बधाई और आपका हार्दिक आभार. नमस्ते.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर लिंक संकलन... आपकी आरंभिक पंक्तियां शानदार हैं। हमारी रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं

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