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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

4038....अपने हिस्से का भाग्य

शुक्रवार अंक में
आप सभी का स्नेहिल संस्थान।

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बदलते मौसम

पेड़ का हाथ छोड़ते पत्ते

उदास दोपहर

ढलती शाम

चेहरों के बदलते रंग

हर पल याद दिलाती है

मैं यात्रा में हूँ...।


भीतर की बैचेनी

अकेलेपन का शोर

भीड़ का सन्नाटा

प्रेम की उदासीनता

रिश्तों की औपचारिकता

चलते-चलते मन पकड़कर

झकझोर कर कहती हैं

मैं अनवरत यात्रा में हूँ।

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आज की रचनाएँ-




दुनिया देखने के लिए

 मेरे लिए., 

मेरा अपना चश्मा ही ठीक है 

तुम्हारे चश्मे के शीशों के

उस पार..,

मुझे सब कुछ धुंधला सा

नज़र आता है जिसको देख

मेरा मन ..,

बहुत किन्तु-परन्तु करता है 


आया ऋतुराज


मौसम ने ली अंगड़ाई
छाया चहुँ ओर रंग बसंती 
कुहक रही कोयलिया अंबुआ की डाल पे
खेतों खलिहानों में नाच उठी सरसों
इतरा रहे धरा पर पीले पीले फूल


रूसो


बुद्ध की तरह तलाशता रहा
दुख-दर्द और पराधीनता से मुक्त दुनिया
उसे सर्वाधिक कष्टप्रद लगती थी पराधीनता
उसने एक ऐसी दुनिया का मॉडल पेश किया
जिसमें पराधीनता शब्द छूमंतर हो जाए
जिसमें राजा-प्रजा की विभाजक रेखा मिट जाए
सब उतने ही आजाद हो जाएं
जितने वे प्रकृति के साम्राज्य थे


अपने हिस्से का भाग्य



यह देखकर सेठ को बहुत गुस्सा आया। वह सोचने लगा- *कैसा कृतघ्न आदमी है। मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, पर न तो इसने धन्यवाद तक दिया और न ही अपने काम की जिम्मेदारी समझी। इसकी तन्खाह बढ़ाने का क्या फायदा हुआ ? यह नहीं सुधरेगा !*



तेरी रहमत पे भरोसा है मुझे...

मैंने देखा बहुत सारी चिड़ियाएं कलरव करती हुई आई , उस बबूल पर बैठी और फिर वैसे ही कलरव करते हुए उड़ गयी । मुझे लगा शायद सबके साथ वह चिड़िया भी उड़ गई होगी ।

ध्यान से देखा तो नहीं उड़ी वह !  कैसे उड़ती ? माँ जो है । वह तो उसी बबूल की हर टहनी में बेचैनी से इधर उधर फुदक-फुदक कूदती- फाँदती फिर अपने नन्हें बच्चों के पास आती, जैसे कोई रास्ता ढूँढ़ रही हो इस मुसीबत से निकलने का ।

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आज के लिए इतना ही
मिलते है अगले अंक में।

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5 टिप्‍पणियां:

  1. मौसम ने ली अंगड़ाई
    छाया चहुँ ओर रंग बसंती
    सुन्दर अंक
    आभार सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. मौसम ने ली अंगड़ाई
    छाया चहुँ ओर रंग बसंती
    सुन्दर अंक
    आभार सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. चिन्तनपरक भूमिका के साथ लाजवाब सूत्रों का संकलन । संकलन में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से आभार श्वेता जी !

    जवाब देंहटाएं
  4. भीतर की बैचेनी

    अकेलेपन का शोर

    भीड़ का सन्नाटा

    प्रेम की उदासीनता

    रिश्तों की औपचारिकता

    चलते-चलते मन पकड़कर

    झकझोर कर कहती हैं

    मैं अनवरत यात्रा में हूँ।
    वाह!!! एकदम सफ़्फ़ाक श्वेता - सी प्रस्तुति!!!!

    जवाब देंहटाएं
  5. उम्दा एवं पठनीय लिंकों से सजी लाजवाब प्रस्तुति
    मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार।
    भीतर की बैचेनी
    अकेलेपन का शोर
    भीड़ का सन्नाटा
    प्रेम की उदासीनता
    रिश्तों की औपचारिकता
    चलते-चलते मन पकड़कर
    झकझोर कर कहती हैं
    मैं अनवरत यात्रा में हूँ।
    इस अनवरत यात्रा का बोध रहना जरुरी है।
    👌👌🙏🙏

    जवाब देंहटाएं

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