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गुरुवार, 30 नवंबर 2023

3960...तुम शहरी, महानगर जैसे हो हम ही हैं छोटी तहसील से...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

भूलभुलैया

दो कदम भी ना बढे मेरे मैं जहां थी वहीं रही

जहां से अन्दर प्रवेश किया था वहीं  खुद को खडा पाया

कुछ समय  बाद अपने को वहीं पाया आगे कोई राह ना मिली

जितना आगे बढ़ती वहां का  मार्ग बंद हो जाता   |

पथ दिखाता चाँद नभ में

कभी सूखा मरुथलों-सा

ज्यों शब्द भी गुम हो गये,

हाथ में अपने कहाँ कुछ

थाम ली  जब डोर  उसने!

दो हज़ार का नोट....

सोचा ये लापरवाही हमसे हो गई कैसे,

पता नहीं पत्नी दबाकर बैठी होगी कितने ऐसे।

आखिर पे टी एम के ज़माने में

कैश कौन हैंडल करता है।

शायरी | तुम शहरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

तुम शहरी, महानगर जैसे हो

हम ही  हैं  छोटी तहसील से।

चार कविताएं (अनूप सेठी)

कोई छोटी उम्र में

कोई भरपूर जी करके

कोई बीमारी में कोई लाचारी में कोई चलते चलते ही चलता बना

हे कोमल करूणाकर स्वामी

अपूर्ण लालसा कसक मिटाना

अधीर कुटीर सुखद कर देना

हास्य विकल मुख पर सजाना

आनंद अति अवलंबन देना.

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव 


4 टिप्‍पणियां:

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