।। प्रातः वंदन।।
"उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है,
वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।
जगो तो निराशा निशा खो रही है
सुनहरी सुपूरब दिशा हो रही है
चलो मोह की कालिमा धो रही है,
न अब कौम कोई पड़ी सो रही है।
तुम्हें किसलिए मोह घेरे हुआ है?
उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है।"
अज्ञात
आगाज़ कि सबेरा हुआ है, तो फिर उसी चिरपरिचित अंदाज में चलिए आज शुरुआत करते हैं..
राजा मूँछ मरोड़ रहा है
सिसक रही हिरनी
बड़े-बड़े सींगों वाला मृग
राजा ने मारा
किसकी यहाँ मजाल
कहे राजा को हत्यारा
मुर्दानी छायी जंगल में..
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ढल रही है ज़िन्दगी की उमर धीरे-धीरे
अब तलक उस लमहे को रोके खडी हूँ
जिसे छोड़ा अधूरा था उसने जिस हाल में
कई अरसे गुजर गये आयेगा वो इन्तज़ार में
कशमकश में जीती रही ज़िन्दगी भरी बहार
में ।
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न झूठी अब लिखाई चाहता हूं।
बदलना रोशनाई चाहता हूं ।। ।1।
कई खबरें हैं खबरों से परे जो,
मैं उनकी भी छपाई चाहताहूं। ।2।
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Dear ज़िन्दगी !
बड़ा होकर भी देख लिया ...
समझदारी कि चादर ओढ़
बुढ़ापे को भी टटोल लिया ...
अब नासमझ बचपन कि
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शिक्षा, शिक्षण तथा प्रशिक्षक
मानवता के पावन रक्षक,
कोरे मन पर लिखें इबारत
बन जाते हैं वही परीक्षक
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।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
शानदार अंक
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसभी को शुभ पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसुंदर भूमिका, सभी रचनाकारों व पाठकों को आने वाले सभी पर्वों की बधाई। सराहनीय रचनाओं से सजा अंक, 'मन पाये विश्राम जहां' को स्थान देने हेतु बहुत बहुत आभार पम्मी जी!
जवाब देंहटाएंलाजवाब अंक
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अंक
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