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शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

3867....मौसम शहर का...

 शुक्रवार अंक में

आप सभी का स्नेहिल संस्थान।
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दुष्यंत कुमार का हिन्दी-साहित्य के समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण स्थान हैं। उनकी कविता जन-जन की कविता है। कवि ने अपनी रचनाओं में सहज विश्वास के साथ मध्यवर्गीय व्यक्ति के आत्म-संघर्ष और उसकी छटपटाहट को अभिव्यक्ति प्रदान की है। अतः यह कहना कि दुष्यंत कुमार जी समकालीन हिन्दी कविता के समर्थ हस्ताक्षर हैं, सार्थक प्रतीत होता है। इस तथ्य की पुष्टि उनके काव्य-वैशिष्ट्य से सहज ही हो जाती है।

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
आइये अब आज की रचनाओं का आनंद लें

दस्तावेज़ के दस्तावेज़ में
मिठाई की भाषाएँ
तुलसी तक रही दवाखाना को
माली एक स्कूल है

की परिचय परिभाषा सीमित
अप्रूवल का सीज़न..
      
     

  भाई बहन का पर्व है राखी, क्यों अब इसे भुलाया ?
 रक्षा सूत्र को ऐसे खुद से खुद को क्यों पहनाया ?

दो मत दो रूपों में मैं थी अपने पर ही भारी !
मतभेदों की झड़ी लगी मुझ पे ही बारी-बारी।


       

नेह में मोती पिरोकर

दीप में किरणें प्रभा की।

आरती वन्दन करूँ मैं

नेह की थाली सजा ली॥

प्रेम के उपहार मेरा से

दिल ही भर गया॥






थकी हुई पलकें हैं धुंधली आंखें, फ़क़त ये उलझन है बेबसी की,
हुए जो इतने निशब्द लब अब, कहीं ये गंदे दिल को ख़ल न जाए। ज़रा तो दिल में उतर के देखो, लिटरेचर किस्से बदल गए हैं, बड़ा ही दुश्मन है ये ज़माना, परस्पर जुड़ें उनकी स्वायत्तता ना जाए



                            


 

हाथ कर भागेगा
हंसते-हंसते
रो जाएगा
सो जाएगा
जागेगा तो उछलेगा
पानी है तो फूटेगा।
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 आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।












6 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा प्रस्तुति
    सादर वंदे

    जवाब देंहटाएं
  2. रूमानी ग़ज़लों के चलन के दौर में जब दुष्यंत की ग़ज़लें लोगो ने पढ़ी तो अचंभित हो गए कि क्या ऐसे भी ग़ज़ल लिखी जाती है.
    समकालीन ग़ज़लों की परिभाषा दुष्यंत ने ही गढ़ीं है.

    दुष्यंत को समर्पित यह अंक पठनीय है
    अच्छी भूमिका के लिए साधुवाद

    सम्मलित सभी रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
    इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
    लाजवाब भूमिका के साथ शानदार प्रस्तुति... सभी लिंक बहुत ही उत्कृष्ट ...मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु दिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता !

    जवाब देंहटाएं

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