नमस्कार ! यशोदा जी के आग्रह पर प्रयास कर रही हूँ ........ हांलांकि आग्रह तो उनका पिछले मंगलवार के लिए भी था ...... लेकिन तब नहीं कर पायी ........ श्वेता ने हनुमान बन संकट से उबार लिया था ...... और सच कहूँ तो आज भी कुछ ऐसा ही लग रहा था की श्वेता को ही पुकारना पड़ेगा .... लेकिन कुछ हिम्मत कर ही ली .... तो हाज़िर हूँ आज कुछ चुनी हुई पोस्ट के साथ .....
यूँ तो भाषा का विकास अपने मनोभावों को एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए हुआ था और हम सब अपने मन की बात शब्द शब्द दूसरे तक पहुँचाते हैं ...... लेकिन हर शब्द अपना अलग ही प्रभाव छोड़ता है ...... शब्द को ग्रहण कर कैसी मनः स्थिति रहती है ये तो वही बता सकता है जिसने शब्दों के मर्म को समझा हो ... समझिये आप भी -----
जलते शब्दों के अमिट निशान
चिपक जाते हैं उम्रभर के लिए
मन के अदृश्य सतह पर
अनुपयोगी
बर्थमार्क की तरह,
शब्दों का प्रभाव ही हमें ज़िन्दगी के बारे में अलग अलग नज़रिए से सोचने पर मजबूर करता है ... ज़िन्दगी किसी को कुछ नज़र आती है तो किसी को कुछ ....... एक नयी उपमा के साथ रेखा जी बता रही हैं कि ज़िन्दगी क्या है .....
ये जिन्दगी
हादसों की इमारत है,
जिसकी एक एक ईंट के तले दबे
इस जिन्दगी के
कुछ न भूलने वाले
हादसे ही तो हैं.
आप हादसों की इमारत कहती हैं तो कोई ज़िन्दगी की तुलना चाय से दे देती हैं ..... उनका कहना है कि
वाणी जी का कहना है कि जिस तरह से चाय को अपनी पसंद का बना कर पिया जाता है उसी तरह ज़िन्दगी को भी अपने मन के अनुसार बना लेना चाहिए .....
लेकिन क्या सच ही इतना सरल है ज़िन्दगी को अपने अनुरूप ढाल लेना ? यदि सच ही ऐसा होता तो कोई दुखी तो हो ही नहीं सकता था ...... क्यों कि सब तो सुखी ही रहना चाहते हैं ...... अनीता जी भी तो यही कह रही हैं ....
किसी को नहीं चाहिए
कोई भी दुःख, पीड़ा या उलझन
मिला भी है उसे हज़ार बार प्रेम का वर्तन !
वैसे वक़्त वक़्त की बात है ......... किसी को उसी बात में दुःख नज़र आता है तो किसी को ख़ुशी ...... कभी हमें कोई बात पसंद होती है तो कभी नापसंद ......... और कभी कभी तो जिसे हम नापसंद करते हैं वही शिद्दत से पसंद करने लगते हैं ..... .... उषा जी भी तो अपनी नापसंद को पसंद में तब्दील कर कुछ ऐसा ही लिख रही हैं .....
पीला
मुग्ध हो कहा पीले से-
माफ कर दो मुझे
बहुत अनादर किया तुम्हारा
हँस कर कहा उसने-
कोई बात नहीं
आदत है हम रंगों को…
रंगों के माध्यम से क्या इंसान को लपेटा है ........ मान गए ........ अरे भई मानना तो हमें बहुतों को पड़ जाता है जो बिना लाग लपेट के खरी खरी कह जाता है .... अब देखिये ये आम आदमी पार्टी तो अभी बनी है ... लेकिन ये आम आदमी ( mangopeople ) वाला ब्लॉग तो पहले से है , और इस पर निष्पक्ष रूप से अपनी बात रख दी जाती है .... आज भी कुछ विशेष लिखा है .....
ज्यादातर लोग ध्यान नहीं देते लेकिन हमारे सारे तीज त्यौहार , हमारे यहाँ शादी विवाह आदि ज्यादातर शुभ काम सब भारतीय हिन्दू कैलेंडर से होता हैं और मुसलमानो का हिजरी | यहाँ अंग्रेजी कैलेंडर कोई नहीं देखता | ज्यादातर सरकारी छुट्टियां भारतीय कैलेंडर के अनुसार होते हैं क्योकि त्यौहारों के कारण मिलने वाली ये छुट्टियां अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से नहीं होती |
उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कम्पनियाँ अपनी योजनाएं भी भारतीय कैलेण्डर को ध्यान में रख कर बनाती हैं | आपको बताऊ अकेले दिवाली पर जितने फ्रिज टीवी एसी आदि इलेक्ट्रॉनिक सामन बिक जाते हैं उतना साल भर नहीं बिकता |
लोगों को कितना ही समझा लें लेकिन सब अपने अधिकार याद रखते हैं लेकिन जब कर्तव्य की बात आये तो बगलें झांकने लगते हैं ...... इसी बात को खूबसूरत ग़ज़ल में ढाला है गिरीश पंकज जी ने .....
जाने क्या पाने की खातिर भटक रहे हैं हम दर-दर
पास रखा संतोष हमारे वही ख़ज़ाना भूल गए
और जहाँ तक भूलने की बात है तो हम आपस के रिश्तों के साथ ही हर चीज़ के प्रति फ़र्ज़ निभाना भूलते जा रहे हैं .... भूलते जा रहे हैं कि प्रकृति ही हमारी रक्षक है ...... इसी भाव को सुधाजी ने अपने शब्द दिए हैं .....
हम अचल, मूक ही सही मगर
तेरा जीवन निर्भर है हम पर
तू भूल गया अपनी ही जरूरत
हम बिन तेरा जीवन नश्वर
इसके साथ ही प्रदूषण पर एक अत्यंत प्रभावी रचना पढवाने जा रही हूँ ..... .. विश्व मोहन जी के लेखन से आज हम सभी परिचित हैं ...... और उनकी रचना का विश्लेषण कम से कम मैं तो नही ही कर सकती ..... आप पाठक स्वयं ही लेखन की गहराई तक पहुँचें..
समंदर!
उसे बाँहों में भरता।
लोट लोट मरता।
लहरों से सजाता।
सांय सांय की शहनाई बजाता
अधरों को अघाता
और रग रग पीता।
फिर दुत्कार देता
वापस ‘ बैक-वाटर’ में।
नदी को सीता की उपमा दे कर सोचने पर विवश कर रही है यह रचना ....... प्रदूषण तो प्रदूष्ण ही है ...... चाहे जल का हो या वायु का या फिर शोर का लेकिन यहाँ मीना जी मोबाईल के प्रदूषण की बात कर रही हैं और आग्रह कर रही हैं कि एक दिन मोबाईल की छुट्टी कर दो .....
फिर से किताबों को,
भोले से ख्वाबों को,
लट्टू पतंगों को,
रिश्तों के रंगों को,
ढूँढ़ने चलो, या फिर
चिट्ठी लिख लो...
लेकिन मैं तो आज के दिन बिलकुल नहीं चाहूँगी कि आप मोबाईल की छुट्टी करें ..... क्यों कि फिर आप मेरे दिए गए लिंक्स तक पहुंचेंगे कैसे ? तो कम से कम आज की छुट्टी नहीं ..... और आज अंत में जो मुझको हो पसंद वही बात हम करेंगे ........... एक अप्रतिम रचना ......
ये स्नेह स्वर कितना अनुरागी हैकि भीतर पूर नत् श्रद्धा जागी है
भ्रमासक्ति थी कि मन वित्तरागी है
औचक उचक हृदय थिरक उठा
आह्लादित रोम-रोम अहोभागी है
कैसा अछूता छुअन ने है पुचकारा?
अब इसके बाद कुछ नहीं रह जाता लिखने को ....... इस काव्य रचना को पढ़ एक गीत याद आया उसका विडिओ नीचे दिया है ......
आप सब आज के लिंक्स का आनंद लें ....... और बताएँ कि आज की प्रस्तुति कैसी लगी ? कमियाँ बताएँगे तो सुधारने में आसानी होगी .......
फिर जल्दी ही मिलने की कोशिश करुँगी ......... तब तक के लिए ....... नमस्कार
संगीतास्वरूप
आपकी सदाशयता से अभिभूत हूँ। नमस्कार।
जवाब देंहटाएंमेरा तो प्रयास भर है । आभार
हटाएंप्रिय दी,
जवाब देंहटाएंसुबह-सुबह आपका स्नेहाशीष पाकर मुस्कुराहटों से दिन की शुरुआत हुई।
आपके अपने अंदाज़ में प्रस्तुत प्रत्येक रचना के साथ लिखी अपनेपन से भीगी सुंदर पंक्तियाँ मन मोह रही हैं।
अंक की सभी रचनाएँ शानदार हैं।
दी.कृपया पाक्षिक ही सही आप आती रहें।
अभी रचनाओं पर प्रतिक्रिया लिखनी शेष है।
आते है इत्मीनान से रचनाएँ पढ़कर।
सप्रेम
सादर
प्रतिक्रिया का इंतज़ार है । नियमित रहने की कोशिश करूँगी ।।
हटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमंगलवार को हनुमान जी के स्मरण के साथ समर्पित इस संकलन में चयनित सभी रचनाओं पर परोसे गए प्रशंसनीय पुरोवाक आपके प्रस्तुतीकरण की सर्वदा से विशिष्ट और ईर्ष्य शैली रही हैं। साधुवाद और आभार!!!!
जवाब देंहटाएंविश्वमोहन जी ,
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया टॉनिक का काम करती है , लेकिन ये ईर्ष्या शैली भला क्यों ? ऐसा कुछ विशिष्ट नहीं होता है ।।
हार्दिक आभार ।
वाह ! सुंदर रंग बिरंगा कलेवर देख आपकी छवि चमक गई आंखों में ।मन ने आपकी उपस्थिति का अहसास करा दिया ।
जवाब देंहटाएंरचनाएँ भी शानदार और पठनीय हैं जरूर पढ़ूंगी । आभार सहित सादर शुभकामनाएँ।
बहुत दिनों बाद।वो कहतें हैं न...इंतजार का फल मिठा होता है सो तृप्त तो हो ही गए। शब्दों की वानगी कहाँ समाएगी केवल दो शब्दों में सो इक ही शब्द 'अप्रतिम'।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ
पम्मी तृप्ति का मन तृप्त हुआ , इससे ज्यादा और क्या चाहिए ।।शुक्रिया ।।
हटाएंअति श्रम से सहेजे हुए (पठनीय रचनाओं के) लिंक्स से सजी सुंदर हलचल, बहुत बहुत आभार संगीता जी !
जवाब देंहटाएंअनिता जी ,
हटाएंसराहना हेतु धन्यवाद ।
कोटिशः आभार
जवाब देंहटाएंसादर नमन
🙏🙏 आभार
हटाएंमेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद | आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग जगत में विचरण किया अच्छा लगा | एक दो पुराने पोस्ट की लिंक के कारण कितने पुराने लोगों को और उनकी टिप्पणियों को देखा | वो भी क्या दिन थे कहते लग रह जैसे कितने बूढ़ा गए :)
जवाब देंहटाएंअंशु जी ,
हटाएंआप आज ब्लॉग्स का भ्रमण करके आयीं और पुराने दिन याद किये , मेरा छोटा सा प्रयास सफल हुआ । वैसे वो दिन ये कह रहे थे कि अभी इतने तो बूढ़े न हुए हो कि हमारी ( ब्लॉग )तरफ देखना ही छोड़ दो । जवान बने रहिये । प्रतिक्रिया के लिए दिलीशुक्रिया ।
अब नियमित हो रहे हैं, बस ठीक हो जायें। अपनी ये रचना हम भी भूल गये थे।
जवाब देंहटाएंरेखा जी ,
जवाब देंहटाएंस्वागत है । पहले स्वस्थ होइए । हम लोग बहुत कुछ भूल बैठे हैं । अस्वस्थता के बावजूद आप ब्लॉग्स तक पहुँचीं , इसके लिए हृदय से आभार ।
संगीता जी सबसे पहले तो मेरी रचना को मान देने का शुक्रिया...दूूसरा शुक्रिया इतना सुन्दर गीत सुनाने के लिए...आज सारे दिन सुना भी और गाया भी...मन झूम गया...आज बहुत दिनोंं बाद ये सुना...और बहुत ही सुन्दर , विविधतापूर्ण संकलन आज का...प्रस्तुति का अंदाज आपका हमेशा की तरह सराहनीय...सभी लिंक बेहद रोचक...सभी को बधाई।
जवाब देंहटाएंआपको गीत पसंद आया बहुत शुक्रिया । सराहना हेतु आभार ।
हटाएंइस सुन्दर प्रस्तुति के लिए एक गीत हमारे तरफ से - रूप तेरा ऐसा कि मन में न समाये .... हमें खुशी मिली इतनी... पलक बंद कर लूँ कहीं छलक ही न जाए.....
जवाब देंहटाएंज़हेनसीब ..... खूबसूरत गीत के लिए । सराहना हेतु आभार ।।
हटाएंओ! हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ भी।
जवाब देंहटाएंजी दी,सभी रचनाओं का आस्वादन कर आये
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक रचनाएँ मिलीं,पुरानी रचनाओं को और.उसपर लिखी प्रतिक्रियाओं को पढ़कर उस सुनहरे दौर की कल्पना ही कर सकते हैं। पर.आपके प्रयास से उस दौर.के कुछ अमूल्य मोतियों की आभा से मंच की शोभा द्विगुणित हो गयी है।
आनन फानन में ऐसी मनमोहक प्रस्तुति बनाने के टिप्स जरूर चाहेंगे आपसे।
सचमुच विशेषांक बहुत अच्छा लगा।
रचनाओं के लिए -
ज़िंदगी है या चाय का प्याला
हादसों की इमारत दुखों का हाला
भारतीय कैलेंडरों के विविध रूप
नहीं चाहिए कोई पीला या काला
पेड़-पर्यावरण संतुलन की ईकाई
फर्ज़ निभाना भूल गये ये कर डाला
बैक वाटर,तटों को चूम लहरें कहती
मुझे किसने है पुकारा बनी नेह माला ।
------
अगले.विशेषांक की प्रतीक्षा में
सप्रेम सादर
प्रिय श्वेता ,
हटाएंसभी लिंक्स पढ़ कर प्रतिक्रिया देना प्रस्तुति की सफलता को इंगित करता है । आभार । नेह माला बनी रहे ।
कोशिश करूँगी कि प्रस्तुति देती रहूँ ।
वही चिरपरिचित अंदाज में सुन्दर स्नेहिल प्रतिक्रियाओं से हर रचना को और भी पठनीय एवं विशेष बनातीआपकी प्रस्तुति हमेशा संग्रहणीय एवं अद्भुत रहती है ...काश आपको और पढ़ना होता पर आपसे आग्रह भी नहीं करुँगी क्योंकि सर्वप्रथम आत्मरक्षा... आप पहले अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें। हम कभी कभार में ही संतोष कर लेंगे..
जवाब देंहटाएंमुझे भी इस नायाब प्रस्तुति में शामिल करने हेतु दिल से धन्यवाद आपका।
🙏🙏🙏🙏
सुधाजी ,
हटाएंआप अस्वस्थ होते हुए भी प्रस्तुति तक आयीं ,मेरे लिए पुरस्कार से कम नहीं है । आभार ।
बहुत ही सुंदर एवं सार्थक रचनाएँ खोज कर लाई हैं हम सबकी प्यारी संगीता दी।
जवाब देंहटाएंहालांकि मैं अपनी रचना के बारे में यही कहूँगी कि ये रचना 2017 में लिखी गई थी। तब मोबाइल यानि स्मार्टफोन का मेरी जिंदगी में (2016 में) नया नया पदार्पण हुआ था । मोबाइल से इतना लगाव नहीं था। अपने बेटे को हर समय मोबाइल में खोया देखकर मेरी इस अभिव्यक्ति को राह मिली। आज तो मोबाइल जिंदगी का एक हिस्सा बन गया है।
Whats app पर एक मजेदार संदेश भेजा था किसी ने -
"जिसका कोई नहीं होता,
उसका मोबाइल होता है।
और जिसका मोबाइल होता है,
वो किसी का नहीं होता।"
हृदय से धन्यवाद कि आपने इस अंक में मुझे शामिल किया और कई बेहतरीन पुरानी रचनाएँ भी हम पढ़ पाए। सभी रचनाकारों को बधाई इतनी लाजवाब रचनाओं के लिए।
प्रिय मीना ,
हटाएंमाना कि आज स्मार्ट फोन है और बिना फोन जग सूना सूना लागे वाली स्थिति है ,लेकिन सच ही एक दिन यदि छुट्टी दी जाए मोबाइल को तो ये सब होगा जो तुमने लिखा है ।।मोबाइल ने जहाँ बाहर की दुनियाँ से जोड़ा है वहाँ घर में अकेला कर दिया है ।
प्रस्तुति पसंद करने के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंये स्नेह स्वर कितना अनुरागी है
कि भीतर पूर नत् श्रद्धा जागी है
भ्रमासक्ति थी कि मन वित्तरागी है
औचक उचक हृदय थिरक उठा
आह्लादित रोम-रोम अहोभागी है
कैसा अछूता छुअन ने है पुचकारा?
आह! ये किसकी टेर है, मुझे किसने है पुकारा?
प्रिय दीदी,आज की प्रस्तुति इन्हीं भावनाओं के साथ फलीभूत हो रही हैं ।पंक्तियाँ भले अमृता जी की हैं पर आपके अनुरागी मन तक पाठकों की स्नेहिल टेर पहुँच ही गयी आखिरकार।नई -पुरानी रचनाओं के साथ मधुर गीत ने मन मोह लिया।मेरा पसंदीदा गीत है पर आज मुद्दत बाद जो आनन्द आया,बता नही सकती।कई बार सुना।
(***
👌👌😀
तुमने ही किया टोना
तुमने ही जादू फेरा
अनजानी डगरी पे चला देखो मन मेरा ///😀😀😀👌👌♥️♥️🌺🌺)
आपकी इस स्नेहिल उपस्थिति,सुन्दर भूमिका और रचनाओं की मर्मभेदी समीक्षा से सजी भावपूर्ण प्रस्तुति को नमन है।सभी रचनाओं को पढ़ा बहुत अच्छा लगा।सभी रचनाकारों को सादर नमन।आपको हार्दिक बधाई।अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें।हमेशा प्यार और शुभकामनाएं आपके लिए 🌺🌺♥️♥️🌹🌹🌷🌷🙏🙏
प्रिय रेणु,
हटाएंसबसे पहले गीत पसंद करने के लिए दिल से शुक्रिया ।
अमृता जी की पंक्तियों का ही जादू है जो इतना प्यारा गीत एकदम से दिमाग में आया ।
अब ये टेरने की ही ख़ासियत है कि कितनी शिद्दत से महसूस होती है ।सच तो ये है कि आप सबके प्यार से वंचित रहना नहीं चाहती ,लेकिन मजबूर हो जाती हूँ ।
प्रस्तुति तभी सार्थक होती है जब पाठक दिए गए लिंक्स तक पहुँचें । मुझे खुशी होती है कि मेरे पाठक लिंक्स पर जाते हैं ।
सराहना हेतु आभार ।