भयावह बाढ़,
मन के कैनवास पर
सात रगों से छवियाँ
उकेरी पूरी शिद्दत से
सारी दुनिया सिमटी
थी उस पर |
अपनी उधड़ी हुई खाल देखकर,
नाभि के नीचे बहते लहू की धार देखकर भी,
वह भूख में भी हँसती है,
बलात्कार ये बाद भी उसे हंसी आती है,
दर्द के भयानक आवेग को दबाकर भी
वह हँसती है..
आगे किसी के नहीं झुकती
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
सूरज की रोशनी तले,जीते हुए,
चांद भी तो निरा अकेला है।
रंगीन ख्वाबों तले सब मन अकेला है,
शराफत के चादर तले हर इंसान नंगा है।
ध्यानार्थ: आदरणीया पूनम जी की इस रचना पर आमंत्रण के लिए कॉमेंट बॉक्स उपलब्ध नहीं है।
हरियाली तीज का सौगात हमारा।
ईश्वर रखें , सदा अहिवात हमारा।
जीवन का उपहार सजा दूं हाथों में।
सावन का शृंगार....
शिव प्रभात..
जवाब देंहटाएंभयावह बाढ़,
भू-स्खलन
ज़ोरों पर जारी ह
शोर में डूबी
संसद हमारी है।
सादर
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआज का अंक बढ़िया है |मेरी रचना कोआज के अंक में स्थान देने के लिए स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद रवीन्द्र जी |
आशा जी लिंक पर आपकी रचना उपलब्ध नहीं है, कृपया एक बार ब्लॉग पोस्ट चेक करे।
हटाएंलगवाती हूँ
हटाएंसादर
सामयिक तथा पठनीय संकलन,आभार एवम शुभकामनाएं रवीन्द्र जी ।
जवाब देंहटाएंपठनीय संकलन, संसद का शोर आदमी ये अंदर का शोर है जो जब बाहर आ जाता गई तो कभी-कभी देश को भी इसी तरह शर्मसार होना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को भी स्थान देने के लिए आभार
सादर
बेहतरीन संकलन । आज की छोटी सी भूमिका में बहुत बड़ी बात कह दी है । संसद की तो कोई गरिमा ही नहीं रही ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका इस कृति को स्थान देने के लिए.
जवाब देंहटाएंसार्थक भूमिका और सुंदर रचनाओं से सजा अंक, बधाई !
जवाब देंहटाएंसमसामयिक भूमिका एवं पठानिया सूत्रों के लिए बधाई |
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