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शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

चली प्रिय-मिलन-स्थल की ओर... अंक तिरासी में

सादर अभिवादन..
पितृ-पक्ष समाप्ति की ओर...

कितनी जल्दी गुजरते हैं
ये दिन भी...
साल की शुरुवात होते ही
साल के समापन की बेला
पहुँचने लगती है....

होता है और होता ही रहेगा...
चलिए चलते हैं आज की कड़ियों की ओर..

जग की बहुत देख ली हलचल
कहीं न पहुँचे कहते हैं,
पाया है विश्राम कहे मन
हम तो घर में रहते हैं !


गमलों मे पानी देते हुये
मुझे लगा
पत्तियाँ मुझसे कुछ बोलना चाहती है 
मैंने अपने कान  पास कर दिये 
आवाज आई धन्यवाद 
कई दिनों से प्यास लगी थी 
धमनियों मे भी  रक्त संचार हो गया 
मैं आभारी हूँ 


ढेरों सात्विक अंलकारों संग 
हवा रोशनी ध्वनि  से भी तेज़ भागते मन को थामें   
सूरजमुखी से खिले फूल सी 
चली प्रिय - मिलन- स्थल की ओर   
पूरे चाँद की छाँह तले


शीशे की सुराही में -- नज़रों की शराब है ...
बरसों की राहें चीरकर 
तेरा स्वर आया है 
सस्सी के पैरों को जैसे 
किसी ने मरहम लगाया है ...



बाजुओं में अपनी, तू बल जगा ,
किसान का वंशज है, हल लगा। 
फटकने न दे तन्द्रा पास अपने,
आलस्य निज तन से पल भगा।  
किसान का वंशज है, हल लगा।।  


बेटियाँ हों ना अगर तो बहु मिलेगी फिर कहाँ
कौन सी दौलत बड़ी है इस परी के सामने

बंदगी जब की खुदा की हौसले मिलते गए
झुक न पाया सिर मिरा फिर तो किसी के सामने


अपने थे
देना था  -
कुछ वक़्त, कुछ ख्याल 
लेकिन,
इस देने में मैं रह गया खाली 
हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !
मैंने सबको बहुत करीब से देखा 



आज का अंक यहीं तक..
फिर मिलेंगे....
आज्ञा दें यशोदा को
चलते-चलते ये गीत सुनते चलिए













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