सर्वोच-न्यालय का ऐतिहासिक फैसला....
अयोध्या में विवादित स्थल पर बनेगा राम मंदिर....
मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक जमीन.....
सदियों पुराना विवाद सुलझ गया.....
ये भारत की अखंडता के लिये अति आवश्यक था....
2 दिन बाद यानी 12 नवंबर को.....
श्री गुरु नानक देव जी का 550वां प्रकाशोत्सव है.....
श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाशोत्सव पर.....
आप सभी को मेरी ओर से अग्रिम शुभकामनाएं.....
राष्ट्रीय कवि मैथली शरण गुप्त जी ने.....
कविता कुछ लंबी है.....
पर मुझे आशा है.....
बहुत आनंद आयेगा, पढ़कर.....
मिल सकता है किसी जाति को
आत्मबोध से ही चैतन्य ;
नानक-सा उद्बोधक पाकर
हुआ पंचनद पुनरपि धन्य ।
साधे सिख गुरुओं ने अपने
दोनों लोक सहज-सज्ञान;
वर्त्तमान के साथ सुधी जन
करते हैं भावी का ध्यान ।
हुआ उचित ही वेदीकुल में
प्रथम प्रतिष्टित गुरु का वंश;
निश्चय नानक में विशेष था
उसी अकाल पुरुष का अंश;
सार्थक था 'कल्याण' जनक वह,
हुआ तभी तो यह गुरुलाभ;
'तृप्ता' हुई वस्तुत: जननी
पाकर ऐसा धन अमिताभ ।
पन्द्रहसौ छब्बीस विक्रमी
संवत् का वह कातिक मास,
जन्म समय है गुरु नानक का,-
जो है प्रकृत परिष्कृति-वास ।
जन-तनु-तृप्ति-हेतु धरती ने
दिया इक्षुरस युत बहु धान्य;
मनस्तृप्ति कर सुत माता ने
प्रकट किया यह विदित वदान्य ।
पाने लगा निरन्तर वय के
साथ बोध भी वह मतिमंत;
संवेदन आरंभ और है
आतम-निवेदन जिसका अन्त ।
आत्मबोध पाकर नानक को
रहता कैसे पर का भान ?
तृप्ति लाभ करते वे बहुधा
देकर सन्त जनों को दान ।
खेत चरे जाते थे उनके,
गाते थे वे हर्ष समेत-
"भर भर पेट चुगो री चिड़ियो,
हरि की चिड़ियां, हरि के खेत !''
वे गृहस्थ होकर त्यागी थे
न थे समोह न थे निस्नेह;
दो पुत्रों के मिष प्रकटे थे
उनके दोंनों भाव सदेह ।
तयागी था श्रीचन्द्र सहज ही
और संग्रही लक्ष्मीदास;
यों संसार-सिद्धि युत क्रम से
सफल हुआ उनका सन्यास ।
हुआ उदासी - मत - प्रवर्तक
मूल पुरुष श्रीचन्द्र स्टीक,
बढ़ते हैं सपूत गौरव से
आप बनाकर बनाकर अपनी लीक।
पैतृक धन का अवलम्बन तो
लेते हैं कापुरुष - कपूत,
भोगी भुजबल की विभूतियाँ
था वह लक्ष्मीदास सपूत ।
पुत्रवान होकर भी गुरु ने,
दिखलाकर आर्दश उदार,
कुलगत नहीं, शिष्य-गुणगत ही
रक्खा गदी का अधिकार ।
इसे विराग कहें हम उनका
अथवा अधिकाधिक अनुराग,
बढ़े लोक को अपनाने वे
करके क्षुद्र गेह का त्याग ।
प्रव्रज्या धारन की गुरु ने,
छोड़ बुद्ध सम अटल समाधि,
सन्त शान्ति पाते हैं मन में
हर हर कर औरों की आधि ।
अनुभव जन्य विचारों को निज
दे दे कर 'वाणी' का रूप
उन्हें कर्मणा कर दिखलाते
भग्यवान वे भावुक-भूप ।
एक धूर्त विस्मय की बातें
करता था गुरु बोले-'जाव,
बड़े करामाती हो तुम तो
अन्न छोड़ कर पत्थर खाव ।'
वही पूर्व आदर्श हमारे
वेद विहित, वेदांत विशिष्ट,
दिये सरल भाषा में गुरु ने
हमें और था ही क्या इष्ट ?
उसी पोढ़ प्राचीन नीव पर
नूतन गृह-निर्माण समान
गुरु नानक के उपदेशों ने
खींचा हाल हमारा ध्यान ।
दृषदूती तट पर ऋषियों ने
गाये थे जो वैदिक मन्त्र ।
निज भाषा में भाव उन्हींके
नानक भरने लगे स्वतन्त्र ।
निर्भय होकर किया उन्होंने
साम्य धर्म का यहाँ प्रचार,
प्रीति नीति के साथ सभी को
शुभ कर्मों का है अधिकार ।
सारे, कर्मकाण्ड निष्फल हैं
न हो शुद्ध मन की यदि भक्ति,
भव्य भावना तभी फलेगी
जब होगी करने की शक्ति ।
यदि सतकर्म नहीं करते हो,
भरते नहीं विचार पुनीत,
तो जप-माला-तिलक व्यर्थ है,
उलटा बन्धन है उपवीत ।
परम पिता के पुत्र सभी सम,
कोई नहीं घृणा के योग्य;
भ्रातृभाव पूर्वक रह कर सब
पाओ सौख्य-शान्ति-आरोग्य
"काल कृपाण समान कठिन है,
शासक हैं हत्यारे घोर,"
रोक न सका उन्हें कहने से
शाही कारागार कठोर ।
अस्वीकृत कर दी नानक ने
यह कह कर बाबर की भेट-
"औरों की छीना झपटी कर
भरता है वह अपना पेट !"
जो सन्तोषी जीव नहीं हैं
क्यों न मचावेंगे वे लूट ?
लुटें कुटेंगे क्यों न भला वे
फैल रही है जिनमें फूट ?
मिले अनेक महापुरुषों से,
घूमे नानक देश विदेश;
सुने गये सर्वत्र चाव से
भाव भरे उनके उपदेश ।
हुए प्रथम उनके अनुयायी
शूद्रादिक ही श्रद्धायुक्त,
ग्लानि छोड़ गुरु को गौरव ही
हुआ उन्हें करके भय-मुक्त ।
छोटी श्रेणी ही में पहले
हो सकता है बड़ा प्रचार;
कर सकते हैं किसी तत्व को
प्रथम अतार्किक ही स्वीकार ।
समझे जाते थे समाज में
निन्दित; घृणित और जो नीच,
वे भी उसी एक आत्मा को
देख उठे अब अपने बीच ।
वाक्य-बीज बोये जो गुरु ने
क्रम से पाने लगे विकाश
यथा समय फल आये उनमें,
श्रममय सृजन, सहज है नाश ।
उन्हें सींचते रहे निरन्तर
आगे के गुरु-शिष्य सुधीर
बद्धमूल कर गये धन्य वे
देकर भी निज शोणित-नीर ।
अब पेश है.....
आज के लिये मेरी पसंद....
बहुत कुछ अनकही
कहीं पे झाड़-फूंक,गंडे-ताबीजों की,तांत्रिक लीलाएं होती हैं,
कहीं धूनी रमाते बाबाओं की,खौफ़नाक रासलीलाएँ होती हैं।
सड़कों पर रातों में दौड़ती,100 नंबर पुलिस गश्त करती है,
मगर वो वारदातियों को कभी भी,रंगे हाथों नहीं पकड़ती है।
रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ कहा,अनकहा कह गयी,
उफ़ भी न बोली ये,और बहुत कुछ,असहनीय सा सह गयी ।
ख्वाब...
जब नासमझ थे,
तो ख्वाब हमारी
मुट्ठी में बंद थे,
कहानी कहां शेष है
कौन फिसलन से खुद को बचा पाएगा
जिंदगी अपनी मुट्ठी पकड़ लाएगा
देख साहस का दामन न छूटे कभी
कल सुबह फिर सवेरा नया आएगा ।
मौन
मेरे मन की इस
छिद्रविहीन सुदृढ़ थैली में
इसी तरह निरुद्ध रहने दो
वगरना जिस भी किसी दिन
इसका मुँह खुल जाएगा
मेरे आँसुओं की प्रगल्भ,
निर्बाध, तूफानी बाढ़
मर्यादा के सारे तट बंधों को
तोड़ती बह निकलेगी
फ़र्क से फ़र्क !
हाँ हम वहीं ये कहते हैं
कि
कोई फ़र्क नहीं पड़ता !
जहाँ हम हीं इस फ़र्क को जीते हैं ।
उसमें घुला हुआ जहर भी पीते हैं ।
दीर्घ मुक्तक : 935 - सूरज
आज तो जानूँ न क्या-क्या मुझसे हो बैठा ?
पत्थरों में फूल के मैं बीज बो बैठा ।
धूप में भी जो झुलस जाता है रात उसने ,
दोपहर का स्वप्न में सूरज पकड़ डाला ।।
बादल मद में चूर है .....
नींद नयन से दूर है !
ख्वाब बहुत दूर है -
प्याऊँ सुखा ,कुंए गहरे ,
घडियालों के कामिल पहरे
नीर पहुँच से दूर है !
बादल मद में चूर है -
धन्यवाद।
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम,
जवाब देंहटाएंसबको सन्मति दे भगवान।
इस धरती पर बसने वाले,
सब हैं तेरी गोद के पाले।
कोई नीच ना कोई महान,
सारा जग तेरी सन्तान॥
जातों नस्लों के बँटवारे,
झूठ कहा ये तेरे द्वारे।
तेरे लिए सब एक समान...
सच कहूँ तो मैं ऐसा मनमंदिर बनाना चाहता हूँ , जो मानवीय गुणों से भरा हो , जिसकी कल्पना इस गीत में की गयी है।
नानक दुखिया सब संसार, सो सुखीया जिन्ह नाम आधार ...
जीवन के सारे रहस्य, इसी छोटे से उपदेश में समाहित है।
सदैव की तरह आपने समसामयिक विषय पर भूमिका और विविधताभरी रचनाओं का चयन किया है।
शुभ प्रभात भाई कुलदीप जी..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति..
आभार आपका...
सादर...
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआ हा हा हा ! बहुत ही सुन्दर लिंक्स को संकलित किये है आज की हलचल ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत आभार कुलदीप जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंक चयन के साथ शानदार भुमिका, और सार्थक रचना गुप्त जी की,
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई।
प्रिय कुलदीप जी , बहुत ही शानदार प्रस्तुती रही कल पर , रविवार को बहुत मशरूफियत के चलते प्राय आपकी पोस्ट पर लिखना संभव ही नहीं हो पाता अन्यथा आपकी प्रस्तुतियां लाजवाब रहती हैं | सबसे ज्यादा मुझे गुप्त जी की रचना पढ़कर हुई | उन्होंने संत शिरोमणि बाबा नानकदेव जी पर इतना सुंदर लिखा होगा ये मुझे पता ना था | सभी लिंक सराहनीय हैं | सभी को हार्दिक शुभकामनयें और बधाई |आपको साधुवाद और शुभकामनायें |
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