सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
अपने समय से संवाद करता
"ये मजदूरों की छोरियाँ
लप लप खाए जा रही हैं खीर
और ऐसे कि कोई देख न ले
इनकी बन आई है इन दिनों"
ये सूरज पर थूकने वाले अपना चेहरा बचा लेगा क्या
थोड़ा जुगनू ही बन लेता समझ में आता प्रकाश फैलाना
नश्वर संसार है तो
इस तरह खत्म होते हैं लोग
खेत
घर के चौखटे तक बिछे हुए थे
और घर
अपनी छप्पर में खुंसे हुए
हंसुए, खुरपी और छाता के साथ
ताख पर होता शीशा, दंतुअन, सिंदूर की डिब्बी
दीया
इश्क़ अजब है, तोहमत लेकर आया हूँ
कितने रिश्ते, कितने नुस्ख़े, कितना प्यार,
मैं दादी की वसीयत लेकर आया हूँ।
आज 'गली क़ासिम' से होकर गुज़रा था,
साथ में थोड़ी जन्नत लेकर आया हूँ।
एक शब्दकृति बचपन के खेलों के नाम
यह मज़ेदार इनडोर और आउटडोर खेल बहुत रचनात्मक होते थे और इनको खेलने के लिए चाहिए होते थे चार-पांच दोस्त या सहेलियां, खुला मैदान या घर की छत और सामान के रूप में पत्थर की गिट्टियां, गेंदे, डंडे, कंचे, कागज़- पैंसिल या खड़िया जैसी साधारण सी चीज़े। आज ऐसे ही कुछ खेलों को याद करते हैं जिनके साथ हमारे बचपन की प्यारी यादें जुड़ी है और जिन्हें खेलने का सौभाग्य शायद हम अपने बच्चों को ना दे पाएं...
वसंत की गवाही
मैं गवाह हूं
अपने देश की भूख का
पहाड़ की चढ़ाई पर खडे
दोपहर के गीतों में फूटते
गड़ेरियों के दर्द का
अपनी धरती के जख्मों का
और युद्ध की तैयारियों का.
><
फिर मिलेंगे...
अतिथि
सब झेलना पड़ता है, मजबूरन
सब सहना पड़ता है,
सब सह रहे हैं
अपने ही घर में अतिथि बनकर रहना पड़ता है
रह रहे हैं.....वो भी
चेहरे पर बिना किसी शिकन के...
ये विषय इसी अंक सा लिया गया है
भविष्य में भी ऐसा हो सकता है
पूरी रचना यहाँ पढ़ सकते हैं
प्रेषण तिथिः शनिवार दिनांक 17 नवम्बर 2018
प्रकाशन तिथिः सोमवार दिनांक 19 नवम्बर 2018
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शुभ प्रभात दीदी..
जवाब देंहटाएंसादर नमन..
सदा की तरह सदाबहार प्रस्तुति..
सादर...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम शानदार अंक सुंदर लिंकों का चयन सभी रचनाकारों को बधाई ।
जवाब देंहटाएंवाह अंक है ये महकी फुलवारी एक एक लेखन पुष्प अपनी विशेषता लिये हुए आभार आपका इतने खूबसूरत संकलन के लिये
जवाब देंहटाएंबहुत सारा शुक्रया मैम
जवाब देंहटाएंहमारे अशआर को यहां लाने के लिए🌺🌺💐🙏