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सोमवार, 19 दिसंबर 2016

521....खुद को ढूँढने के लिये खोना जरूरी है

सादर अभिवादन
आज माह दिसम्बर का उन्नीसवाँ दिन
जरूरत से अधिक ठण्ड
देवी जी की तबियत भी
नासाज है कुछ
आराम करने को कहा है
पर होता कहाँ है आराम...

अब तक की परिक्रमा का परिणाम......

जल रहा अलाव आज
लोग भी होंगे वहीं
मन की पीर–भटकनें
झोंकते होंगे वहीं ।

तीनों लोक में सबसे सुंदर स्त्री की नाक
त्रेतायुग में काटी गई कि वह करना चाहती थी
स्वतंत्र प्रेम
और इक्कीसवीं सदी में इसलिए काटी गई
कि उसने भी अपनी मर्जी जीनी चाही

इंतज़ार में 
हिम हुई धरिणी 
आ जाओ रवि

तुम कहते थे 'सिर्फ याद न किया करो
कुछ काम भी किया करो.'
तो अब काम करती हूँ हर वक़्त
कि तुम्हें याद करने का काम स्थगित है इन दिनों


व्यक्त मुख पर कृत्रिमता है,
स्वार्थपूरित मृगतृषा है,
मैं अकेला भटकता हूँ,
प्रेम क्षण-कण ढूँढ़ता हूँ ।
कौन जाने, और कब तक,
सहज होगा चित्त मेरा ।।


बस थोड़े से 
लालच के कारण 
जिसे स्वीकार 
करना मुश्किल 
होता है और 
हमेशा की तरह 
कोशिश व्यर्थ 
चली जाती है 
बेचने की 
एक सत्य को 
पता होने के 
बावजूद भी 
कि सत्य कभी 
भी नहीं बिका है 
.....
आज्ञा दें दिग्विजय को..
सादर






6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर सूत्रों का चयन किया है आज ! मेरी प्रस्तुति 'प्रकोपी सर्दी' को स्थान देने के लिए हृदय से आभार दिग्विजय जी ! धन्यवाद आपका !

    जवाब देंहटाएं
  2. हमेशा की तरह पाँच लिंक। एक लाजवाब प्रस्तुति। आभार दिग्विजय जी 'उलूक' के सूत्र 'खुद को ढूँढने के लिये खोना जरूरी है' को जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी हलचल प्रस्तुति .. धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभदोपहर.....
    क्या बात है सर....
    सुंदर संकलन....
    आभार।

    जवाब देंहटाएं

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