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सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

4402 ....नंगाड़ों की आवाज के साथ फाग चालू आहे

 सादर अभिवादन



फरवरी की पूंछ बाकी है
नंगाड़ों की आवाज के साथ
फाग चालू आहे
झूम के गा रहे हैं लोग
मस्ती फागण की


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अब नहीं रहीं वे उँगलियाँ,
जो अधिकार से टहला करती थीं
मेरे घने बालों में,
अच्छा ही हुआ
कि अब वे बाल भी नहीं रहे.





एक ठंडी शाम, जब मैं खिड़की के पास बैठा था, हाथ में कलम थी और दिल में बेइंतहा दर्द, मैंने एक ऐसी ग़ज़ल लिखी जो सिर्फ़ शब्द नहीं, एक सिहरन थी। हर लफ्ज़ में तड़प थी, हर मिसरा मानो किसी के दिल की धड़कन से बंधा था। ग़ज़ल पूरी करने के बाद मैंने आख़िरी शेर हवा में बुदबुदाया—

"समझाया था कि मोहब्बत अधूरी छोड़ दो, अब देखो... तुम्हारे ख्वाब भी बिखर गए।"






कुछ लम्हों की मुलाकात और बातों ने मुझे
ज़िन्दगी-भर जीने की ऊर्जा और ख़ुशी देदी  !

ये वैलेंटाइन का दिन भी कितना गज़ब है
प्यार के नए बीज़ बोने की जगह बना गयी !




क्या लाइक़-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्तो
पत्थर भी घर में आए ज़माने गुज़र गए

जान-ए-बहार फूल नहीं आदमी हूँ मैं
आजा कि मुस्कुराए ज़माने गुज़र गए





रोज़ बदला है  चाँद सा चहरा
रफ़्ता -रफ़्ता शबाब आ ही गया

बस इशारा सा इक किया उस ने
लेके साक़ी शराब आ ही गया





पथ पर कठिनतम
हुई साधना है
अडिग है जो पत्थर
हिलेंगे डुलेंगे


आज बस
वंदन

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