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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

203..."समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को...

जय मां हाटेशवरी...

आप का...
फिर लाया हूं आप के लिये...
आनंद का एक और अंक...
"समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को...
सवाल इतने नहीं हैं जवाब जितने हैं..."

कल  खिड़की  के  शीशे   पर  पड़ी  ओस  की  बूँदें  को
जब  सूरज  की  किरणे   छू  जायेंगी 
तो    हमारे   पास   भी
बेमोल    मोतियों   का   खजाना   होगा..
और    जब  बादलों  रोयेंगे 
अपने    चाँद  से    बिछड़ने   वक़्त   कल   सुबह
तब 
उस  प्रेम  भरी  बारिश  में  तुम  बागीचे  में  नहा  लेना .....

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बेवकूफ आदमी
आदमी के सहारे
आदमी को फँसाने
की तिकड़मों को
ढो रहे होते हैं
समझदार के देश में
गाँधी पटेल नेता जी
की आत्माओं को
लड़ा कर जिंदा
आदमी की किस्मत
के फैसले हो रहे होते हैं
जमीन बेच रहा हो
कौड़ियों के मोल कोई
इसका यहाँ इसको
और उसका वहाँ उसको
इज्जत नहीं लुट रही है
जब इसमें किसी की
और मोमबत्तियों को
लेकर लोगों की सड़कों
में रेलमपेल के खेल
नहीं हो रहे होते है


कुछ लोग ही जानते हैं
इनकी महिमा से हैं परिचित
अडिग रह कर इन पर
लम्बी  दूरियां नापते हैं
कठिनाई होती है क्या
ध्यान नहीं  देते 
लक्ष्य तक पहुँच ही जाते है
भाल गर्व से होता उन्नत
तभी महत्त्व है  इनका

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चाँद का दर्द कौन समझा है,
सुब्ह चुपचाप घर गया होगा।
न कुछ हमने कहा न था तूने,
दास्ताँ कौन गढ़ गया होगा।


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वन्दना गुप्ता ने अपने उपन्यास 'अँधेरे का मध्य बिंदु ' में इसी विषय को बहुत समग्रता से व्याख्यायित किया है. इसके हर पहलू पर प्रकाश डाला है. कोई भी रिश्ता ,प्रेम ,आपसी
विश्वास ,समझदारी और एक दूसरे को दिए स्पेस पर आधारित हो, तभी सफल हो सकता है . इस उपन्यास के नायक-नायिका के दिल में जब प्रेम प्रस्फुटित होता है तो वे इस
सम्बन्ध को आगे ले जाना चाहते हैं पर विवाह के बंधन में नहीं जकड़ना चाहते .बल्कि सिर्फ प्रेम और विश्वास को आधार बना 'लिव इन ' में रहते हैं. एक दूसरे के ऊपर
कोई बंधन नहीं है, अपने किसी कार्य के लिए कोई सफाई नहीं देनी , घर खर्च और घर के कार्य में बराबर की हिस्सेदारी है .फलस्वरूप उनका सम्बन्ध सुचारू रूप से बिना






हँसते हँसते सब दे डाला , अब इक जान ही बाकी है !
काश काम आ जाएँ किसी के, इच्छा है ,दीवानों की !
रहे बोलते जीवन भर तुम,हम किससे फ़रियाद करें !
खामोशी का अर्थ न समझे,हम फक्कड़ मस्तानों की !
सूफी संतों ने सिखलाया , मदद न मांगे, दुनिया से !
कंगूरों को, सर न झुकाया, क्या परवा सुल्तानों की !

 
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
मुझे खुद अपने कदम का निशाँ नहीं मिलता
धन्यवाद।

4 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    सुन्दर रचनाएँ पढ़वा रहे हैं आज
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. यहाँ आकर बहुत अच्छा लगता है
    मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर हलचल प्रस्तुति । आभार कुलदीप जी 'उलूक' के सूत्र 'गधों के घोड़ों से ऊपर होने के जब जमाने हो रहे होते हैं' को स्थान देने के लिये

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर और रोचक लिंक्स..आभार मेरी रचना को भी शामिल करने का...

    जवाब देंहटाएं

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