शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन
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बदलते मौसम
पेड़ का हाथ छोड़ते पत्ते
उदास दोपहर
ढलती शाम
दिन के बदलते रंग
हर पल याद दिलाती है
मैं यात्रा में हूँ...।
भीतर की बैचेनी
अकेलेपन का शोर
भीड़ का सन्नाटा
प्रेम की उदासीनता
रिश्तों की औपचारिकता
ऊहापोह में डूबे मन को
चलते-चलते टोककर,
रोककर कहते हैं
मैं यात्रा में हूँ।
#श्वेता
आइये आज की रचनाओं की दुनिया में चलते हैं-
विद्यां ददाति विनयं,
विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,
धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ लिखने की आवश्यकता
महसूस नहीं हुई हाँ ये जरूर महसूस हुआ कि
हर हाल में ज़मीन से जुड़े
कुछ लोगों की आत्मा सच्चे प्रकाश से
जगमगाती रहती है-
खिसक न जाय जमीन कहीं पैरों के नीचे की
उड़ने न लगूं मैं कहीं हवा में
इसीलिये सम्मानों से
बचने की कोशिश करता हूं
फिर भी जब जबरन मिलता है
जी-जान लगाकर खुद को ज्यादा से ज्यादा
निर्मल करने लग जाता हूं
ब्रह्मांड के कण कण
में निहित अभिव्यक्ति
होठों से कानों तक सीमित नहीं,
अंतर्मन के विचारों के चिरस्थायी शोर में
मुखरित मौन व्याप्त है।
मैं क्या कह दूँ
स्वयं को ही
मनाने के...
आते हो जब मुझे
सौ बहाने !
रूठने के
टूट जाने के !
अपनी ही
गलियों में !
भटकता
फिर रहा हूँ
सदियों से...
माता और कन्या का रूप मानकर स्त्री का पूजन और बाकी लड़कियों एवं स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार ? ऐसा लगता है मानो स्त्री को देवी बनाकर स्त्री से अलग कर दिया! आख़िर ऐसा क्यों करना पड़ा? क्या इसलिये कि स्त्री के लिये अपमान, हिंसा और उत्पीड़न के रास्ते खुले रखने थे जो उसे दासी बनाकर अपने नियंत्रण में रख सके और मनमना व्यवहार कर सकें।
परंतु जब कवि एक पुरूष हो जो स्त्रियों के हालात को समझकर उस
की पीड़ा उकेर रहा हो तो लगने लगता है कुछ
तो सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं
सब की मानसिकता एक सी नहीं होती।
मैं भी तो रखती हूँ
सीने में एक मन ,
जो कि तुमसे ज्यादा
रखता है संवेदनाएं
समेटे हुए
भीतर अपने।
हिन्दी पद्य-साहित्य विविध विधाओं का उपवन है। मुकरियों या कह-मुकरियोंका प्रारम्भ चौदहवीं सदी के प्रमुख कवि,
शायर, गायक और संगीतकार अमीर खुसरो से माना जाता है। उसी परंपरा को आगे बढाते हुए आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वालेभारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने इस विधा को खुले हृदय से अपनाया एवं शृंगार रस के अतिरिक्त उन्होंने वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं पर भी कह-मुकरियाँ लिख कर बेहतर प्रयोग किये थे।
ऐसी मीठी तान सुनावे
कानों में मिस्री घुल जावे
मास जेठ का होवे सीत
हरे अंब को बनावे पीत।
का सखी, कोयल?
न सखी, प्रीत!
कुछ भी कर लीजिए लोग
कमी निकाल ही लेंगे।
सभी हमसे खुश रह ही नहीं सकते
इसलिए दूसरों की बातें सुनकर दुखी होने
से अच्छा है अपने मन का सुने...।
बेहतरीन,सटीक बिल्कुल यथार्थ लघुकथा....
परन्तु आश्चर्यचकित थी सुन - सुनकर कि "अब जो बनना था बन गई न ! फिर अब क्या पढ़ना ? ऐसे क्या किताबी कीड़ा बनी घुसी रहती है हर समय किताबों में ! ऐसे कैसे चलेगी इसकी जिंदगी ? बाहर निकल अब इन किताबों से , और सीख ले थोड़ा दुनियादारी ! अरे कुछ नहीं तो सो ही जाया कर थोड़ा ! दिमाग को चैन तो मिलेगा !
आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
जारी रहती है यात्रा
जवाब देंहटाएंरहती नहीं न है
रखनी पड़ती है
शंका का निवारण
शंका ही कर सकती है
अप्रतिम अंक
आभार
सादर
एक से बढ़कर एक लिंक्स का चयन
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचनाओं के सूत्र, सुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंसभी सूत्रों पर घूम कर और पढ़ कर .... लो जी मैं तो फिर वहीं आ गयी ।
जवाब देंहटाएंहम सभी हमेशा यात्रा में ही रहते हैं ।।
प्रकृति में घटित हर एक घटनाएं याद दिलाती रहती हैं हमें जीवन सफर की ।फिर भी हम इस शाश्वत सत्य को अनदेखा करते हैं...
जवाब देंहटाएंसारगर्भित भूमिका के साथ लाजवाब प्रस्तुति... सभी लिंक्स उम्दा एवं पठनीय।
मुझे सम्मिलित करने हेतु दिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता !
मेरी मुकरियों को संमलित करने के लिए हृदय से आभार! धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसार्थक5 और भावपूर्ण रचनाओं के साथ एक सुन्दर प्रस्तुति प्रिय श्वेता।अच्छा लगा ,इस अंक के बहाने,आज काफी दिनों बाद ब्लॉग जगत का भ्रमण कर के। सभी सुदक्ष रचनाकारों को सादर नमन।और तुम्हें ढेरों प्यार और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंआदरणीया श्वेता सिन्हा जी ! सादर प्रणाम !
जवाब देंहटाएंरचना को मंच प्रदान करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार , अभिनन्दन !
आशीर्वाद बनाये रखे !
जय भारत ! जय भारती !