ना हम बदलने वाले और ना समाज में बदलाव होगा
क्यों लेखन के लिंक्स का हम प्रचार कर रहे हैं
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अब बारी है विषय की
चौहत्तरवें अंक का विषय
विषय
उजाला
उदाहरण..
न कोई मीत मिले तो फ़क़ीरी कर ले
जलती शमा को बुझा के जुदाई सह ले
मिलती नहीं खुशियाँ तन्हाई जब होती
स्याह रातों में ग़मों से फिर दोस्ती कर ले
लोग ऐसे भी हैं उजाले में नहीं दिखते
आज़माएँ उनको भी ग़र अँधेरा कर ले
रचनाकार-श्री शशि गुप्त शशि
कभी शीतलहर कभी लहर ताप
हमेशा संकुचा जाते लहर संताप
सादर नमन
जवाब देंहटाएंदर्दनाक प्रस्तुति...
इसे ही कहते हैं घोर कलियुग..
...
कुछ नहीं..
जवाब देंहटाएंअब और नहीं
ईश्वर कुछ न दे हमें
बस..प्रलय ही लादे..
सुनामी कोई इत्ती बड़ी..
जो पूरे विश्व को ही
लील ले ...
सादर नमन
निशब्द ¡¡¡
जवाब देंहटाएंसंघातिक ।
इस मंदबुद्धि को तो कुछ भी समझ में आता ही नहीं है, फिर भी एक बात कहूँगा, जब हमलोग (मेरी उम्र के लोग) बच्चे हुआ करते थे, तब विद्यालयों में "नैतिक शिक्षा" नाम से चंद पन्नों की एक पतली सी पुस्तक हुआ करती थी। पुस्तक पतली जरूर थी मगर, चित्त को निर्मल बनाती थी, अच्छे आचरण, मर्यादा और मानवीय मूल्यों को मानस पटल पर अंकित करती थी। कहानी ही सही किंतु हमलोग वीरता, त्याग, अपनत्व, सामाजिकता, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और किसी के समक्ष अपनेआप को प्रस्तुत करने के अतिआवश्यक गुण सीखते थे, जिससे अंतस में मानवता अपनेआप पनपती थी।
जवाब देंहटाएंआज के युग में स्मार्ट फोन, टीवी, मीडिया, (गैर जरूरी कुछ ऐसे भी प्रचार दिखाये जाते हैं, जिन्हें आने पर घर वालों से नज़र भी मिलाना मुश्किल हो जाता है)...। ठीक ही है, आर्थिक विकास होना चाहिए, मगर आर्थिक विकास लेकर हम क्या करेंगे जब नैतिकता ही नहीं रहेगी? आज किसी ने किसी के फूल के साथ दरिंदगी की है, कुचल दिया है, कल को कोई हमारे साथ... परसों हममें से कोई किसी और के साथ...
नहीं... नहीं... मेरे कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि ऐसा होगा ही, मगर दुराचरण के मज़बूत साये में खड़े इस मानव समाज को देखते हुए क्या आप यह निश्चित रूप से कह सकते/सकतीं हैं कि अभी-अभी जो मैंने कहा है वह संभव ही नहीं? ईश्वर करें ऐसा न हो, मगर हो गया तो...? उदाहरण सामने है।
एक ख़रोंच से ही पीड़ा की भरमार हो जाती है। अक्सर कराह उठते हैं हम। अब ज़रा नरपिशाचों के कुकर्मों पर एक नज़र डालिए।
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मैं सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूँ कि चाहे बेटा हो या बेटी, उसके लालन पालन में यदि हमने कहीं भी ढील दी है, या अनुशासित करने में कसर छोड़ी है, तो यकीन मानिये एक दिन हमें अपनेआप पर शर्मिंदा होना पड़ेगा। उस परवरिश पर अफ़सोस होगा हमें, जिसे अपनी संतति को प्रदान करने के लिए हमने अपनी इच्छा/सुविधा के विरुद्ध, अपनी आर्थिक/शारिरिक क्षमता से ज़्यादा प्रयास किया।
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एक स्वस्थ समाज को बनाने के लिए हमें बच्चों को नैतिक मूल्यों से अवगत कराना ही होगा। क्योंकि इनसे ही समाज बनता है, और हम भी उसी समाज में रह रहे हैं, रहेंंगे भी।
चाहे बेटा हो या बेटी, उसके लालन पालन में यदि हमने कहीं भी ढील दी है, या अनुशासित करने में कसर छोड़ी है, तो यकीन मानिये एक दिन हमें अपनेआप पर शर्मिंदा होना पड़ेगा। उस परवरिश पर अफ़सोस होगा हमें, जिसे अपनी संतति को प्रदान करने के लिए हमने अपनी इच्छा/सुविधा के विरुद्ध, अपनी आर्थिक/शारिरिक क्षमता से ज़्यादा प्रयास किया।एक स्वस्थ समाज को बनाने के लिए हमें बच्चों को नैतिक मूल्यों से अवगत कराना ही होगा। क्योंकि इनसे ही समाज बनता है, और हम भी उसी समाज में रह रहे हैं, रहेंंगे भी।
हटाएंआप के एक शब्द से मैं पूर्णतः सहमत हूँ ,यकीनन हर कोई पूर्णतः सहमत होगा ,बस अब जरूरत हैं अपनी गलतियों में सुधार लाने की
क्या कहें दी...कुछ नहींं सूझता।
जवाब देंहटाएंये आप जितने घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं, सभी जिम्मेदार हैं। हिन्दू, मुस्लिम, दलित, सवर्ण, जाती, खाप, विरादरी, गांव, टोला, रिश्ता, परिवार.... सब के सब जिम्मेदार हैं। नकली बुद्धिजीवी मत बनिये। पूरा संबंध है जीव और उस जगत में जहां वह जीव परवरिश पाता है और पाप कर्म करके भी पनपता रहता है। क्यों नहीं उस पापी को वह महान धर्म तंखैया या काफ़िर घोषित कर देता है। क्यों नहीं वह जाति उसे बहिष्कृत कर देती है। क्यों नहीं वह परिवार उसे दाखिल कर देता है। क्यों नहीं वह समाज उसे तड़ी पार कर देता है। ध्यान रहे, सक्रिय दुर्जन से ज्यादा खतरनाक और काले धब्बे निष्क्रिय सज्जन हैं!!!!
जवाब देंहटाएंसत्य वचन।
हटाएंसहमत
हटाएंदुखद अकल्पनीय।
जवाब देंहटाएंझकझोरने वाली घटना. सबको सोचना चाहिए कि ऐसी घटनाएँ आखिर रुकेंगी कैसे.
जवाब देंहटाएं😢😥😭
हटाएंदुखद .. हृदय विदारक ।
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