१ ५ नवम्बर २ ० १ ७
।।प्रातः वन्दन।।
सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है
दिल है तो, धड़कने का बहाना कोई ढूंढें
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है
क्यूँ हैरान है ? आप सभी इन बोल से
पर यहीं सच्चाई है आजकल,
प्रदूषण के संबंध में पिछले साल भी और इस साल भी
खूब बैठकों का दौर चला ..तमाम
योजनाओं के बावजूद हम मौजूद महासंकट से हार रहें हैं
तभी तो स्माँग चेम्बर में रहने को विवश है..वातावरण में शामिल
जहरीले तत्व सेहत के लिए निहायत ही जानलेवा साबित हो रही है।
इस दुर्दशा के जिम्मेदार सरकार, दिल्लीवासी और पड़ोसी राज्य सभी है...
त्वरित समाधान की आवश्यकता है क्योंकि जिस अवस्था में हम सभी है रुका नहीं
जा सकता समस्या से पार आगे भी जाना जरूरी है।
कहीं.. इस बार भी समाधान तेज हवाओं के रुख और बारिश पर तो नहीं...
फिर सबबब.. ठीक हो जाएगा।
चलिए अब नज़र डालते है आज की लिकों पर..✍
ज्योति खरे जी की रचना..
बहुत खास होते हैं
अपनों से भी अधिक
जैसे
पुरुष के लिए प्रेमिका
स्त्री के लिए प्रेमी
मनमोहन भाटिया जी की कथा..
कृष्ण गोपाल को बिस्कुट खाते देख कंचन ने पूछा "नाश्ता बना दूं,क्या लोगे?"
"हां भूख लग रही है। कुछ भी बना दे। क्या बनाओगी?"
"आलू का पराठा बना दूं?"
"बना दे।"
कंचन ने पराठे के साथ अदरक वाली चाय भी बना दी।
ध्रुव जी की बहुत गहरे भाव और आध्यात्मिक रचना ..
रखकर रक़्त में 'संवेग'
सम्मुख देखकर 'पर्वत'
बदल ना ! बाँवरे फ़ितरत
अभी तो दूर है जाना
तुझे है लक्ष्य को पाना
उड़ा दे धूल ओ ! पगले
ब्लॉग कबाड़खाना से..
जब भी विभाजन का राउंड फिगर आता है- जैसे, 40, 50, 60, 70 तो हमारे
अंदर का इतिहासकार जाग उठता है.
सबसे पहले उन बूढ़ों की खोज लगाने की होड़ शुरू हो जाती है
जिन्होंने विभाजन ख़ुद देखा या भोगा हो ताकि उनकी यादें रिकॉर्ड
करके ताज़े हरे या गेरुए गिफ़्ट पैक में बांध के नई खोज़
की सुनहरी फीते लपेट के पेश किया जा सके.
मीना शर्मा जी की अभिव्यक्ति का आनंद ले..
पलकों के अब तोड़ किनारे,
पीड़ा की सरिता बहने दो,
विचलित मन है, घायल अंतर,
एकाकी मुझको रहने दो।।
शांत दिखे ऊपर से सागर,
गहराई में कितनी हलचल !
अशोक जी की रचना..
उसका नाशुक्रा होना, सख्त नापसंद है
मुझे बस... अपनी ज़मीनी हकीक़त पसंद है...
आज़ की बातें वातें यहीं तक ..✍
।।इति शम।।
धन्यवाद।





