आश्चर्य हो रहा है स्वयं पर ,ऐसा कैसे हो सकता है ?
कि जो माला साल भर घुमाई, घड़ी आने पर टूट गई।
वर्ष भर की सरकारी मेहनत ,जागरूकता अभियान ,अभिनेताओं का मेहनताना ,पोस्टरों पर हुए खर्च ,जनता की रैलियां बड़े -बड़े
वादे सभी ठन्डे बस्ते में चले गए।
और तो और उन मेहनती रचनाकारों की रचनाओं का ज़रा भी ख़्याल नहीं आया जिसमें उन्होंने शोर व प्रदूषण मुक्त दिपावली मनाने का सन्देश दिया था और मैंने उन्हें लाइक भी किया और बढ़-चढ़ कर टिप्पणी भी की। क्या करूँ जो दुनिया के सामने शेर बना फिरता है आख़िर परिवार के सामने गीदड़ सदृश ही रह जाता है। पड़ोस के तिवारी जी सरकारी कार्यालय में मेरे ही समकक्ष जिन्होंने दिवाली में अपने बच्चों के लिए पटाखों की बारात सजा दी।
फिर क्या था हमारी श्रीमती जी ने घर में ही
ए के -४७ सूखे ही दागने प्रारम्भ कर दिए।
तुम्हे अपने बच्चों से प्यार नहीं साल भर का त्यौहार और पटाखों की कोई गूँज नहीं। हमारे घर में लक्ष्मी मैया कहाँ टिकेंगी।
शमशान में मुर्दे ही लोटतें हैं
और ढिबरी -बत्ती के साथ कुछ शोर आवश्यक है और तुम हो कि पर्यावरण बचाने पर आमादा हो। एक दिन पटाख़े छुड़ाने से पर्यावरण के हेल्थ पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। जाओ और जाकर पटाखे ले आओ नहीं तो लक्ष्मी पूजा नहीं होगी !
फिर क्या था सभी वायदों और क़समों को ताख पर रखकर पटाखों के शंखनाद सुनने ही पड़े। अब सोचता हूँ ग़लती किसकी थी ?
दोषी कौन है !
लक्ष्मी मैया ?
मेरी घर वाली ?
सरकारी तंत्र ?
वो पटाखा वाला ?
अथवा
हमारी घिसी-पीटी सोच
जिसकी कोई सीमा नहीं
या
परिवर्तन का जन्मजात शत्रु हमारा प्यारा धर्म !
( अपने विचार अवश्य रखें क्योंकि विचारों का कोई अंत नहीं ,अलग बात है धर्म को हमने अपने देश का चौकीदार बना रखा है। )
रहीम जी का एक दोहा जिसमें ये शब्द फिट बैठता है।
रहिमन धर्म राखिये ,बिन धर्म सब सून
धर्म गए ना उबरे ,मोती ,मानस चून।।
सादर अभिवादन
आदरणीय प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
ध्रुव सरीखा
दिलाती है धनिष्ठा
मान प्रतिष्ठा।
राहू की दशा
नक्षत्र शतभिषा
शनि की पीड़ा।
आदरणीय "शांतनु सान्याल''
ज़िन्दगी इतनी भी मुश्किल
ज़ुबां नहीं, यूँ तो मैंने हर
इक सांस में जिया है
उनको अफ़सोस
आदरणीया "सुधा सिंह"
जरूरत थी मुझे तुम्हारी
पर..... पर तुम नहीं थे!
मैं अकेली थी!
तुम कहीं नहीं थे!
आदरणीय "सुशील कुमार जोशी"
कुछ दिन
अच्छा होता है
नहीं देखना
कुछ भी
अपनी आँखों से
दिख रहे
सब कुछ में
आदरणीय "डॉ टी एस दराल"
समय के साथ देश में हुए विकास के कारण निश्चित ही देशवासियों के रहन सहन , दिनचर्या और सामर्थ्य में परिवर्तन आया है। आज यहाँ भी किसी भी विकसित देश में मिलने वाली सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बदले हुए परिवेश में हमारी जीवन शैली बदलना स्वाभाविक है। पर्वों के स्वरुप भी बदल रहे हैं।
आदरणीय श्याम कोरी 'उदय'
लोग ..
न जाने .. क्या-क्या लिख देते हैं
और मुझसे .. एक शब्द लिखा नहीं गया
आदरणीया "साधना वैद"
आ जाओ प्रिय
तुम पर अपना
सर्वस हारूँ
आदरणीय "रविंद्र सिंह यादव"
संतोषी भात-भात कहते-कहते भूख से मर गयी,
हमारी शर्म-ओ-हया भी तो अब बेमौत मर गयी।
आदरणीया "रेणु बाला" जी
अनगिन दीपों संग आज जलाऊँ -
एक दीप तुम्हारे नाम का साथी ,
तुम्हारी प्रीत से हुई है जगमग
क्या कहना इस शाम का साथी
आदरणीया "मीना शर्मा"
दीप प्रेम का रहे प्रज्ज्वलित,
जाने कब प्रियतम आ जाएँ !
दो नैनों के दीप निरंतर
करें प्रतीक्षा, जलते जाएँ !
आदरणीया "अपर्णा" जी
चीनी मंहगी, गुड़ भी मंहगी
मंहगा दूध मिठाई है,
खील बताशे मंहगे हो गए
क्योँ दीवाली आयी है?
आज परिवार के एक सदस्य की अनुपस्थिति बहुत खलती है। हर बुधवार को आदरणीया "पम्मी" जी की प्रस्तुति का इंतजार रहता है। आशा है जल्द ही आगमन होगा।
आज्ञा
शुभ प्रभात भाई ध्रुव जी
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह धारदार प्रस्तुति
आभार
सादर
बहुत ही सुन्दर सार्थक आज के सूत्र एकलव्य जी ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी भूमिका लिखी है आपने आदरणीय ध्रुवजी। तमाम पाबंदियों के बावजूद हर जगह पटाखे जलाए गए। दीपावली की अगली सुबह वाक के लिए निकलने पर अपनी खूबसूरत कॉलोनी के कंपाउंड में और बाहर, जलाए गए पटाखों के बदनुमा दाग और कचरे को देखा तो मन कचोट गया अंदर तक ! आएँगे सफाई कर्मचारी और करेंगे सफाई ! आखिर दीपावली पर अतिरिक्त बक्षीस भी तो लेते हैं वे ! बिना पटाखों के कैसी दीवाली ? यही सोच थी संभ्रांत नागरिकों की ! बस एक बात का सुकून था कि मेरे सुपुत्र ने भी पटाखों का विरोध किया और पिछले कुछ वर्षों की तरह ही हमने एक भी पटाखा जलाए बिना ही दीपावली मनाई।
जवाब देंहटाएंपिछले कुछ दिनों से मुझे अपनी पोस्टों पर पाठकों द्वारा किए गए कमेंट्स के नोटिफिकेशन नहीं मिल रहे । कृपया इसका कारण व समाधान सुझाएँ । यह तो आज सुबह ही हलचल का अंक देखा और अपनी रचना को यहाँ पाकर सुखद आश्चर्य हुआ । सभी रचनाएँ पढ़ी हैं । बहुत सुंदर हैं। सभी को सादर, सस्नेह बधाई । धन्यवाद ध्रुवजी मेरी रचना के चयन हेतु !
आदरणीय मीना जी नमस्ते।
हटाएंअपने ब्लॉग की सैटिंग चैक कीजिये। BLOGGER पेज (डैश बोर्ड ) पर जाकर - पोस्ट ,टिप्पड़ियाँ ,साझाकरण शीर्षक को क्लिक कीजिये तो सामने आएगा यह विकल्प(नीचे दिया गया चित्र )। बॉक्स में "हाँ" क्लिक कीजिये और नीचे प्रश्न चिह्नों को क्लिक करके "हाँ" को सिलेक्ट कीजिए। अंत में "सैटिंग सहेजें "(पेज पर दायीं ओर शीर्ष पर लाल रंग का बॉक्स ) को क्लिक कीजिये। शायद आपकी समस्या हल हो जाय।
Google+ टिप्पणियां
इस ब्लॉग पर Google+ टिप्पणियों का उपयोग करें ?
हाँ
Google+ पर साझा करें
यह ब्लॉग आपकी निजी Google+ प्रोफ़ाइल से संबद्ध है ?
सुंदर संकलन|
हटाएंवाह ध्रुव जी !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
आपकी व्यंगपूर्ण भूमिका में समाहित हैं अनेक अनुत्तरित प्रश्न।
बधाई।
उत्कृष्ट रचनाओं का समागम।
जाते-जाते दिवाली रचनाओं के माध्यम से उल्लास को पुनः जाग्रत कर रही है।
सम सामयिक रचनाऐं परिवेश का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।
आभार सादर।
आदरणीय रवींद्र जी । धन्यवाद, आपने तुरंत समस्या का समाधान सुझाया । मैंने वह कर भी लिया है किंतु समस्या हल तो नहीं हुई है । आज भी नोटिफिकेशन नहीं आए । कुछ और समझ में आए तो कृपया बताएँ । सादर ।
हटाएंबहुत खूब ध्रुव जी ,सर्वप्रथम दीपावली की शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंऔर सही कहा हमारी घिसी-पिटी सोच ,हमारी परम्पराएं,उस पर वर्ष भर का त्यौहार ,सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है ।आखिर वर्ष भर का त्यौहार होता है बच्चों को भी तो खुश करना है ,प्रदूषण हमारे दो चार पटाखे जलाने से कोई प्रदूषण नही होने वाला है ...वाकई सोच का कोई अंत नहीं ।
आज की प्रस्तूति बहुत शानदार सभी रचनायें स्वयं में विशिष्ट हैं ।
धारदार प्रस्तुति । आभार ध्रुव जी 'उलूक' के पन्ने को भी आज हलचल में जगह देने के लिये।
जवाब देंहटाएंजागृति लाना रचनाकार का धर्म है और उस पर विचार विमर्श भी होना चाहिए परन्तु वाद-विवाद ना हो ये मेरी सोच है। ध्रुव भाई को इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.....
पटाखे बेचे जाते हैं....तभी तो घर में आते हैं..... और दिवाली को जलाए जाते हैं....पटाखे दिवाली को ही नहीं अन्य उतसवों या पर्वों पर भी छोड़े जाते हैं.....
पर उस वक्त किसी प्रदुशन की चर्चा नहीं होती.....बच्चे वर्ष भर दिवाली की प्रतीक्षा करते हैं....पटाखे बिना दिवाली ही नहीं लगती उन्हे.....जो लोग प्रदुषण की चर्चा करते हैं....मैं सोचता हूं उनका लक्ष्य प्रदुषण की चिंता से अधिक हमारी परमपराओं को समाप्त करना है.... बिहार में शराब बंदी की गयी....अगर वहां भी केवल शराब बंदी के पोसटर लगाए जाते शिविर लगाए जाते तो सोचिये क्या बिहार शराब मुक्त हो सकता था क्या?....
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसोच सबकी उचित है....
जवाब देंहटाएंपर अति सर्वत्र वर्जयेत की भावनाओं को
परे रखकर उत्सव मनाना अनुचित है...
बहुत बहुत स्वागत है....
सादर....
बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति आपकी आदरणीय ध्रुव जी,
जवाब देंहटाएंहाँ सही है तमाम कोशिशों के बाद भी लोगों ने पटाखे जलाये,प्रदूषण को बढ़ाने में योगदान दिया,किंतु इसमें धर्म को दोष देना अनुचित है,लोग सुविधानुसार धर्म का प्रयोग करते है,किसी भी वेद,पुराण,उपनिषद् या धर्म ग्रंथ में नहीं वर्णित की पटाखा चलाकर दीवाली मनाइये।ये परंपरा संभवतः बारुद के आविष्कार के बाद प्रारंभ हुआ है।जो कि मेरी जानकारी में मुगलकाल में हुआ था।खैर,वजह चाहे कुछ भी हो सदियों से जिन परंपराओं का निर्वहन हो रहा है वो दो अचानक से समाप्त होना नामुमकिन ही है।जरुरत है हमें(आम जन को)जागरूक होने की,सुधार आम जनमानस के द्वारा ही संभव, मीना जी जैसे परिवार की सोच को बढ़ावा देकर।
हमेशा की तरह आपकी सराहनीय प्रस्तुति,सभी लिंक बेहद उम्दा है।सभी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
सही कहा आपने श्वेता जी । मेरी मम्मी भी कहती हैं कि पटाखों के बिना कैसी दीवाली ? वे भी इसे परंपरा मानती हैं और शगुन के लिए कुछ तो पटाखे लाने को कहती हैं । मेरी जानकारी में भी पटाखे मुगलकाल की देन हैं । जो भी हो,हम एक अच्छी पहल तो कर ही सकते हैं ।
हटाएंविचरोत्तेजक प्रस्तुति. मेरी रचना को शामिल करने के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंवाह!!!ध्रुव जी इतनी शानदार भूमिका के लिए अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंजिम्मेदार कौन ये तो नहीं कह सकती ,पर सालों से चली आ रही परंपरा एक दिन में तो समाप्त नही हो सकती ,कुछ लोगों का मानना है ,एक दिन के पटाखों से क्या फर्क पडता है,दीवाली है ,पटाखे तो चलने ही चाहिए ।जितने लोग उतनी राय ।
सभी लिंक बहुत उम्दा हैं ।
सुन्दर लिंक संयोजन .
जवाब देंहटाएंप्रिय ध्रुव ---- हमेशा की तरह आपका कुशल मंच संचालन और बहुत ही चिंतन परक विषय का सटीक विश्लेषण | पटाखों के बारे में कहूँ कुलदीप जी की बात से सहमत हूँ --पटाखे बेचे जाते हैं तभी घर में आते हैं --- पर बच्चो या फिर पटाखा प्रेमी बड़ों के मन से ये बात निकालने के लिए अभिभावक और शुभचिंतक प्रयासरत रहें कि पटाखों के बिना खुशियाँ नहीं मनती या दीपावली की ख़ुशी अधूरी है | दशकों पहले पटाखे नहीं बजाये जाते थे तो क्या दीपावली की खुशियाँ कम थी ????????? वैसे मैं ये बात गर्व से कह सकती हूँ की मेरे साढ़े बीस साल के बेटे और अठारह साल की बिटिया ने पिछले कई सालों की तरह इस बार भी पटाखा रहित दीवाली का समर्थन करते हुए शांतिपूर्वक दीपावली मनाई और पतिदेव ने भी पर्यावरण हित में पटाखे बजाने से परहेज रखा | पर कई लोग भूमिका में वर्णित अपना संकल्प हारे इन्सान की तरह ही आचरण करते हुए साल भर दोहराते रहने वाले संकल्पों से दीवाली के दिन किनारा करने पर मजबूर हो जाते हैं , भले ही इसके पीछे कोई भी कारण क्यों ना हो |आज के लिंक के सभी रचनाकार मित्रों की रचनाएँ पढ़ी | बहुतअच्छी लगी | सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं | मेरी रचना अपनी प्रस्तुति में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार आपका |
जवाब देंहटाएंसही कहा एक ही घर में जब अलग अलग विचार धाराएं बहती हैं तो यही हाल होता है जो ध्रुव जी ने बयां किया है......उम्मीद है सभी को पर्यावरण समस्या धीरे धीरे समझ में आ जायेगी..... फिर परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है....परम्परा परिवर्तन .!!! ये भी एक दिन जरुर होगा...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर लिंक संयोजन....
ध्रुव जी ... सोचने के नए तंतु खोल दिए आपकी प्रस्तुति ने ...
जवाब देंहटाएंऔर संकलन ही लाजवाब ...
बहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएं