ऐसा कोई भी नहीं जिसे स्वतंत्रता का मतलब ज्ञात न हो
हर गुलाम यह जानता है कि हम स्वतंत्र नहीं है
इस समूचे भारत मे कोई बिरला ही होगा
जो स्वतंत्र हो
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नियमित रचनाएँ
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आदरणीय आशा सक्सेना
स्वतंत्रता
हुई स्वतंत्र अब आत्मा
जन्म मरण से हुई मुक्त
अब बंधक नहीं शरीर की
असीम प्रसन्नता हुई आज |
वह बंधन नहीं चाहती
आदरणीय साधना वैद
अब तो जागो ....
अब तो जागो
तुम भी स्वतंत्र हो
औरों की ही तरह खुद को
तलाशने के लिये
सँवारने के लिये
निखारने के लिये
स्थापित करने के लिये !
आदरणीय उर्मिला सिंह
स्वतन्त्र हैं हम .....
बच्चे हैं तो क्या हुआ, स्वतंत्र हैं --हम
मां बाप का कहना क्यों माने.....
अपनी मर्जी के मालिक हैं -- हम
हमें पालना जिम्मेदारी है उनकी...
आखिर बच्चे तो उनके ही हैं --हम।
आदरणीय शुभा मेहता
स्वतंत्र ...
बडे गर्व से
कहते हैं.हाँ हैं हम
स्वतंत्र देश के
स्वतंत्र नागरिक ..
और हैं भी ....।
पर हमनें तो
इसका ऐसा
किया दुरूपयोग ..
सारी प्रकृति दर्द से
कराह उठी ..
आदरणीय सुशील भैय्या
पहली बार आज के विशेषांक मे शामिल
नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था
‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की
महसूस कर
बेवकूफ
स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।
आदरणीय अनीता सैनी
स्वतंत्र चित्त से ...
उल्लास से कहता उजाले की दहलीज़ पर।
स्वतंत्र चित्त से जीवन की उस ढलान पर।
झोली फैलाए याचक याचना की उम्मीद पर।
आँखों की झपकी भर अस्मिता उधार माँगता।
आदरणीया अभिलाषा चौहान
स्वतंत्र हूँँ मैैंं
प्रकृति ,
मेरे हाथों का खिलौना है
खेल सकता हूँ मनचाहे खेल।
मुझे पसंद हैं
वो पहाड़ जो मैंने स्वयं
निर्मित किए हैं कूड़े के ढेर से।
साफ-सफाई मुझे कहां भाती है।
पक्षियों के नीड़ो में
मेरा ही बसेरा है
आदरणीय सुजाता प्रिया
स्वतंत्र रूप को नमन ..
स्वतंत्र अपना भाव हो ,
स्वतंत्र मन की चेतना।
स्वतंत्र ही विचार हो ,
स्वतंत्र हो् सेवा-साधना।
स्वतंत्र परोपकार हो,
स्वतंत्र भाव लिए हो मन।
सृष्टि के रचनाकार के ,
स्वतंत्र रूप को नमन।
आदरणीय सुबोध सिन्हा
बस यूँ ही
कभी लुटेरों ने दिया ज़ख़्म
तो कभी मिली ग़ुलामी की चोट
कभी बँटवारे का छाया मातम
तो कभी जनरक्षकों की लूट खसोट
गणतंत्र है फिर भी अपने भारत में आज
हम भी तो हैं स्वतंत्र आज मेरे भाई
आदरणीय सुबोध सिन्हा
दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जन्म से पहले ही, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"
....
आज बस
कल का अंक देखिए नए विषय के लिए
आ रहे हैं भाई रवीन्द्र जी
एक सै चौबीसवाँ विषय लेकर
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति! एक से बढ़कर एक रचनाएँ! आभार और बधाई!!!
जवाब देंहटाएंहमारा सोचना था कि देशभक्ति गीतों मे इज़ाफा होगा
जवाब देंहटाएंरचनाएँ सुंदर आई है..
शुभकामनाएँ..
सादर.
बहुत सुंदर लिंक्स, सुंदर संकलन 👌
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।सुंदर रचनाओं का संगम।
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स का संकलन आज |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद यशोदा जी |
जवाब देंहटाएंवाह!खूबसूरत संकलन । मेरी रचना को स्थान देने हेतु हृदय से आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित आज की हलचल ! हमकदम के इस अंक में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंआभार यशोदा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं"हमक़दम" के 123वें अंक का आपका शुरूआती प्रश्नवाचक ऊहापोह-"इस समूचे भारत मे कोई बिरला ही होगा
जवाब देंहटाएंजो स्वतंत्र हो", मन को मंथन के लिए मज़बूर करता है।
आज के इस बहुआयामी दृष्टिकोणों के ताने-बाने से सजी प्रस्तुति के बीच अपनी रचना को देख कर मन से कुछ खुशियाँ स्वतंत्र हो गई ... नमन संग आभार आपका और इस मंच के सहयोगियों को ...