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बुधवार, 30 सितंबर 2020

1902..नाचती एक उर्जा ही..

 ।।उषा स्वस्ति।।

आगे बढ़ो...
सूर्योदय रुका हुआ है!
सूरज को मुक्त करो ताकि संसार में प्रकाश हो,
देखो उसके रथ का चक्र कीचड़ में फँस गया है
आगे बढ़ो साथियो!
सूरज के लिए यह संभव नहीं कि वो अकेले उदित हो सके..!!
('सूरज का सातवां घोड़ा')
धर्मवीर भारती

-*-*-*-*-

सच में अकेले उदित होना असंभव ही है..
तो फिर साथ बढिए साधें लक्ष्य की ओर
और नज़र डालें चुनिंदा रचनाओं पर.. 

वर्ल्ड हार्ट डे पर - डॉ. शरद सिंह

खोल दें हम अपने दिल की डायरी।
फिर करें कुछ कच्ची-पक्की शायरी।

बोझ लें हम क्यूं भला, हर बात का
ज़िंदगी झिलमिल करें ज्यों फुलझरी।


कमल उपाध्याय की अफ़वाह...कट्टर सोच

मुम्बई के मोहम्मद अली रोड से नागपाड़ा जाने वाले रस्ते पर मोटर सवार लडको को पुलिस को गरियाते - निकलते हुए आप देख सकते है। इन मनचलो कि कौम बता कर मै पुरे कौम का नाम ख़राब नहीं कर सकता, क्योंकी इस तरह के लोग हर कौम में मिल जाते है। बेचारा ट्रैफिक पुलिस वाला सिटी बजा कर ट्रैफिक मोड़ने कि कोशिश तो करता है परन्तु गाली खाने के अलावा बेचारा कुछ नहीं कर पाता। 

एक किरण जो मेरी खिड़की से उतर आती हैं 
मेरी खिड़की से उतरती हैं
मेरे फर्श पर छा जाती हैं
एक किरण रोज़
मेरे अँधेरे खा जाती हैं....
आसमान जब बाहें फैलता हैं
घना बादल जब आँखे दिखता हैं


‘कौवा कान ले गया’ जैसा है किसान आंदोलन का सच
कुछ नासूर ऐसे होते हैं जो किसी एक व्यक्त‍ि नहीं बल्क‍ि पूरे समाज को अराजक स्थ‍िति में झोंक देते हैं, ऐसा ही एक नासूर है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र बचाने के नाम पर ''आंदोलन'' की बात करना, फि‍र चाहे इसके लिए कोई भी अराजक तरीका क्यों ना अपनाया जाये। हाल ही में किया जा रहा किसान आंदोलन इसी अराजकता और भ्रम की परिणीति है।

एक किरण ...
मेरी खिड़की से उतरती हैं
मेरे फर्श पर छा जाती हैं
एक किरण रोज़
मेरे अँधेरे खा जाती हैं....
आसमान जब बाहे फैलता हैं
घना बादल जब आँखे दिखता हैं

-*-*-*-

नाचती एक उर्जा ही ..
नित नवीन निपट अछूती
इक मनोहरी ज्योत्स्ना है,
सुन सको तो सुनो उसकी 

आहट ! यह न  कल्पना है !
गूँज कोई नाद अभिनव 
हर शिरा में बह रहा है,
वह अदेखा, जानता सब

-*-*-*-
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’...✍️

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

1901...आँखों के सामने चरमरा के टूटता अंतर्मन

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से

सादर अभिनन्दन।
पिछले दो सप्ताह से हम भूल रहे थे
आज हम एकदम चौकस हैं कोई ग़लती नहीं।

प्रस्तुत हैं आज की रचनाएँ-

आदरणीया उर्मिला सिंह जी चिंतित हैं
और उनकी चिंता स्वाभाविक है-
मानवता आज खतरे में पड़ी है
प्रकृति अपने तेवर दिखा रही है
शोक संतप्त माँ भारती भी...
अपने नॉनिहालों को निहार रही है!

-*-*-

" बड़े जिद्दी ख़्वाब तेरे "... शैल सिंह 
दीदार की ख़्वाहिशों का भी है अजीब सा नशा
मिले फुर्सत कभी तो देख जाना आ कैसी दशा
क्या तेरी आँखों में मेरे ख़्वाब आ पूछते सवाल
तुम्हें भी हैं याद क्या वो शामें सलोनी कहकशाँ । 


मैंने सबकी राहों से,
हरदम बीना है काँटों को ।
मेरे पाँव हुए जब घायल
पीड़ा सहना है एकाकी !!! 


रात में
हिमनद का अदृश्य गहराई में विगलन, -
आँखों के सामने चरमरा के टूटता
अंतर्मन का दर्पण ! इन्हीं
टूट - फूट के मध्य
छुपा होता है
उद्भासित
रहस्य 



मन की वीणा बाज रही है
धर की दीवारें गूँज रहीं
मीठे मधुर संगीत से मन खुशी से डोले
है ऐसा क्या विशेष तुम्हारी सीरत में |
कुछ तो है तुममें ख़ास
मुझे तुम्हारी ओर खीच रहा है

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार। 

#रवीन्द्र_सिंह_यादव  

सोमवार, 28 सितंबर 2020

1900 कुत्ते का आदमी वफादार होता है ।

 संसार में पागलो की श्रेणी में
हम पहले नम्बर पर हैं
दो मत नहीं....
जाएंगे रांची किसी दिन
वहाँ भोजन तो घर का मिलेगा

पसंदीदा रचनाएँ कुछ यूँ है....

या अल्लाह ! 

कोरोना के कहर से बचा अल्लाह

अज़ान के आखिर में एक दुआ हमेशा सुनाई देती है।  

" या अल्लाह ! कोरोना के कहर से बचा अल्लाह, 

सब पर अपना करम बरसा अल्लाह "  

नमाज़ अदा  करने के  बाद मौलवी  

मोहल्ले की गालियों में निकल जाता 

और बिना मास्क पहने हर किसी को 

मास्क पहनने को कहता।  

ये रोज़ की दिनचर्या है उसकी।



ऐ ज़िंदगी ...

कल बहुत देर तलक सोचती रही

फिर सोचा बात कर ही लूं  

फिर मैंने ज़िंदगी को फ़ोन लगाया 

मैंने कहा आओ बैठो किसी दिन 

दो चार बातें करते हैं 

एक एक कप गर्म चाय की प्याली

एक दूसरे को सर्व करते हैं 


आस ....

कब तक कोई आस लगाये ,

अपना आकुल मन बहलाए |

घर सूना है , आंगन सूना ,

जीवन का वृन्दावन सूना |

सुधियों की राधिका हठीली ,

और कर रही दुःख को दूना |


उत्तरायण का इंतज़ार - -

धुंधभरे जिल्द की किताब को रख दो

कहीं कांच की अलमारी में बंद,

जीवन की वास्तविकता

ग़र जानना हो

तो मिलो

उस

अंधकार गली के किसी मोड़ पर जहाँ

शैशव एक ही रात में पहुँच जाता


हमारे सुशील भैय्या का
उलूक टाइम्स
बारह वर्ष का हो गया
प्रस्तुत है उनकी पहली प्रस्तुति

परिचय

बतायें

कुत्ता हिन्दू

नहीं होता है

कुत्ता मुस्लिम

नहीं होता है

कुत्ता क्षत्रिय

नहीं होता है

कुत्ता ब्राह्मिन

नहीं होता है

और तो और

कुत्ते का

रिसरवेशन

नहीं होता है

काश !

कुत्ता होता मैं

और

मुहावरा होता

कुत्ते का आदमी

वफादार होता है ।

उनको ढेर सारी शुभकामनाएँ
सादर



रविवार, 27 सितंबर 2020

1899 ...सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम

नमस्कार..
भाई कुलदीप जी आज
नहीं है...सुबह बात हुई उनसे
वो सामान्य हैं....
हमारी पसंद कुछ यूँ है....

सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम 
घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम
जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में
होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम

सुनो, महामारी के दौर में 
ख़ुद से ज़रा बाहर निकल जाना,
थोड़ी दूर रहकर 
ध्यान से देखना
कि क्या कुछ बचा है तुममें,


मेरी बेटी मन मोहनी
बहुत प्यारी  सबकी  दुलारी
मुझे बहुत भाग्य से मिली है
उस जैसा कोई गुणी नहीं है |


चौराहों  की रौनक छीन ली गई 
गलियों को उनकी हैसियत बताई गई 
पत्त्थर पर पैर पल-पल जीवन को 
मारने के लिए मजबूर किया गया 
सफ़ेद चील ने तजुर्बे के कान छिदवाए 
संस्कार कह रस्मों की माला पहनाई गई।



रक्तिम हुई क्षितिज सिंदूरी
आज साँझ ने माँग सजाई
तन-मन श्वेत वसन में लिपटे 
रंग देख कर आए रूलाई
रून-झुन,लक-दक फिरती 'वो',
ब्याहता अब 'विधवा' कहलाई

आज भी .
आज भी सूर्यांश की ऊष्मा  ने 
अभिनव मन  के कपाट खोले  ,
देकर ओजस्विता
किरणें चहुँ दिस  ,
रस अमृत घोलें  ..!!
आज भी चढ़ती धूप  सुनहरी ,
भेद जिया के खोले ,
....
आज बस..
कल की कल
सादर

शनिवार, 26 सितंबर 2020

अक्षय

अक्षय

चमचम

छमछम
हलचल
जल.

कलकल

गाजर
स्पीकर
शरबत

गरजी

फल

गमला

टमटम

भड़भड़

हहा



1898.. उड़ान

इंसान चाहता है कि
उसे उड़ने को पर मिले
परिन्दा चाहता है कि
उसे रहने को घर मिले

यथायोग्य सभी को
प्रणामाशीष
क्षमता तुम में हर समाधान की
आज़मा लो जीवन गतिमान की






“किसी के काम आ जाऊँ यही ईमान रखता हूँ ,
बिखरूँ फिर सिमट जाऊँ यही उन्वान रखता हूँ ।
सदा ही साथ चलने की कसम खाई जो हमने है,
तेरी किस्मत बदल जाऊँ यही अरमान रखता हूँ।”
– डॉ. आरके राय “अभिज्ञ”


“ए परिंदे तेरे हौसले की क्या दाद दूँ,
उड़ ले तेरा पूरा आसमान है।
मगर सुन ले मुझमें पर नहीं हौसले हैं,
उड़नें के लिए पूरा हिन्दुस्तान है।”
– सौम्या यादव



“हौसलों में उड़ान रखते हैं।
हम भी इक आसमान रखते हैं।
हमको माज़ूर न समझा जाए।
हम भी अपना जहान रखते हैं।”
– लाएब नूर



यथार्थ पर धरातल

साहित्य सदैव अपनी विपुल सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण-संवर्धन और अपने परिवेश,समाज और देश के मानसिक विकास की धारा को उन्नत बनाने की दिशा में अग्रसर रहा है । मगर हाल के वर्षों में पाठकों की उदासीनता हमें काफी हैरान और बेचैन करती है । कुछ तो कारण है ? लेखकों और पाठकों के बीच पारदर्शिता का अभाव या लेखकों की संवादहीनता । जिस कारण लेखकों और पाठकों के सम्बन्धों में तनाव पैदा हो रहे हैं । अगर यही स्थिति रही तो इसके अंजाम क्या होंगे,कोई नहीं जानता।

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पुन: भेंट होगी
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

1897..एक सूखा पत्ता गिरा नदिया के पानी में

 शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।

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हम मनुष्य सदैव अनुसरण करते हैं,स्वयं के विचारों और जीवन को बेहतर बनाने के लिए ऐसे व्यक्तित्व का चुनाव करते हैं जो समाज के आईने में झिलमिलाते हैं, पारदर्शी, देखने,सुनने या समझने में उच्च आदर्श और मापदंड स्थापित करते हैं हम भावनात्मक रूप से स्वयं को उनसे जोड़ लेते हैं किंतु  अनुकरण करने के लिए अपने बुद्धि, विवेक और तर्क की आँखें मूँदना सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं शायद...।

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अपनी-अपनी तृष्णाओं के रेगिस्तान में

भटकते ताउम्र इच्छाओं के बियाबान में,

चकाचौंध के अंधानुकरण में गुम किरदार

वैचारिकी साँसें धुकधुका रही अनुदान में,

अच्छेपन का अभिनय करते बीता जीवन

ख़ुद का चेहरा भूल गये समय के श्मशान में।

-श्वेता

आज की रचनाएँ


हथेलियों में बंद धूप का वृत्त

सोए इस तरह की उम्र भर न -

जगे, कभी सजल लम्हों

में उतरती रही रोशनी

तेरी निगाह से,

कभी तेरी

आंखों

में बहुत धुंधला सा आसमां लगे,

मैंने पूछा है तेरा पता डूबते

तारों से, उभरते सुबह

के उजालों से,

कभी तू

दो पल विश्राम के लिए ...

जल-दर्पण में मधुर मुस्कान का जादू नयनाभिराम

पुरवाई फिर बही सरसराती 

अनमने शजर की उनींदी शाख़ का 

एक सूखा पत्ता गिरा नदिया के पानी में

बेचारा अभागा अनाथ हो गया

पलभर में दृश्य बिखरा हुआ पाया 

प्रीत खो गयी कहीं

समय से पिछड़ी तब महत्त्वाकाँक्षा ने दाग़ी 

भावों का अभाव विवेक ने न लाज रखी 

ज़िंदगी के ज्वर से जूझती ज़िंदा है कहीं 

संयम सहारा कहता!  प्रीत खो गई कहीं।


चोर कौन? ...

कल बाजार में एक चोर को पीटते देखा

घेरी थी दर्जनों की भीड़, मारो साले को...

पूछा मैंने सामान इसने क्या हाथ लगाया है

झट बोले, चुराए मोबाइल के साथ धराया है

मुखौटा

रजत ने बात अनन्या की तरफ मोड़  दी थी उसे पता था अनन्या  निर्णय लेने में हमेशा दूसरों की सलाह पर निर्भर रहती हैं इस लंबी होती बहस में अगर किसी का नुकसान हो रहा था वो टेबल पर रखी आइसक्रीम का जो पिघल रही थी और अपना स्वाद खोती जा रही थी,पहले आइसक्रीम तो खत्म कर लो और कूल हो जाओ अनन्या  ने रजत से कहा दोनों आइसक्रीम खा ही रहे थे तभी अनन्या ने अपना सेल फोन निकला अरे ये तो प्रीति की कॉल है 
"प्रीति रजत की छोटी बहन थी"

....
कल मिलिए विभा दीदी से
उनकी अनोखी रचना के साथ
-श्वेता



गुरुवार, 24 सितंबर 2020

1896..मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता

  सादर नमस्कार।

आज की पम्मी बहन की प्रस्तुति देख कर
भाई रवीन्द्र जी ने अपनी पसंदीदा लिंक्स
मेल कर दी....
ब्लॉग का फार्मेट कठिन नहीं है
सिर्फ कॉपी पेस्ट की वजह से
गड़बड़ी हो जाती है..

पढ़िए आज की रचनाएँ..

पुलक बना वह ही बह निकले ....

घन गरजे, गरजे पवना भी  

बीहड़ वन ज्यों अंधड़ चलते, 

सिंधु में लहरों के थपेड़े 

अंतर्मन में द्वंद्व घुमड़ते !


काव्य शिरोमणि

ओज क्रांति विद्रोह भरा था

कलम तेज तलवार सम 

सनाम धन्य वो दिनकर था

काव्य जगत में भरता दम

सिरमौर कविता का श्रृंगार।।


विश्व शान्ति दिवस ....

अधिकाँश विश्व जूझ  रहा

समस्याओं के जंजाल से

युद्ध की विभीषिका से

कोरोना की मार ने भी

नहीं बक्शा उसे

कहाँ शान्ति खोजे

किससे उसे मांगे  

चारो और त्राहित्राही मची है


शब्द - प्रसूताओं के हो रहे हैं पाँव भारी ..

जहाँ आकाशीय स्तर पर

चल रहे इतने सारे सुधार अभियानों से

पूर्ण पोषित हो रही है हमारी भुखमरी , बेकारी

वहाँ आरोपों -प्रत्यारोपों के

शब्दाघातों को सह -सह कर और भी

बलवती हो रही है मँहगाई , बेरोजगारी

पर ऐसा लगता है कि

शब्द -प्रसूताओं के वाद -विवाद में ही

सबका सारा हल है , सारा  समाधान है

'वर्तमान का हिन्दी साहित्य जगत' : 'एक व्यंग्य'

वर्तमान में हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। 

दरकते रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और 

आत्मीयता इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं।


मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता... 

अतः अगर हालात जल्द वश में नहीं आये तो 

हिन्दी साहित्य जगत 

दरिद्रता की गर्त में धीरे–धीरे धंसता चला जायेगा।

और साहित्यकार पूर्वजों की आत्मा का 

ठगा सा रह जाना हम देख पायेंगे...।


चलते-चलते

इसकी उसकी करने का आज यहाँ मौसम नहीं हो रहा है


कुछ देर के लिये

यूँ ही ‘उलूक’

भरोसा रखकर

तो देख किसी दिन

राख हमेशा नहीं

बनती हर चीज

सोचने में

क्या जाता है

जलता हुआ

दिल है और

पानी बहुत जोर

से कहीं से चू रहा है

सोचने की छुट्टी

.....
कल मिलिए श्वेता जी से


रवींद्र सिंह यादव

बुधवार, 23 सितंबर 2020

1895...आकंठ आनंदित दसों दिशाएँ.

।। भोर वंदन ।।

प्राची में केशर ढुलके,

पूरे भूमंडल पर छा जाए !

आलोकित नव दिनकर

जगती का तिमिर-तुमुल झुलसा जाए !

आकंठ आनंदित दसों दिशाएँ,

सुख समृद्धि चहुँ ओर हो !

यह भोर सुहानी भोर हो..!!

राजेन्द्र स्वर्णकार

आकंठ आनंदित दसों दिशाएँ.. 

समतुल्य भावनाओं से वशीभूत हो 

चलिये अब ब्लॉग की दुनिया से ...✍️


उधेड़ बुन की पेशकश.. 

फ़ेसबुक की तरह

हँसता ही रहा हूँ मैं 

कभी इस 'पोज़' में 

कभी उस 'पोज़' में 

हँसता ही रहा हूँ मैं ..



आदरणीय डॉ. शरद सिंह जी ..

एक पत्थर

दरक जाती हैं भावनाएं

बिखर जाते हैं शब्द

कांच की तरह 

टूट कर,

जब 



लम्हों का सफ़र..अल्ज़ाइमर 

सड़क पर से गुज़रती हुई   

जाने मैं किधर खो गई    

घर-रास्ता-मंज़िल, सब अनचिन्हा-सा है   

मैं बदल गई हूँ, या फिर दुनिया बदल गई है!   

धीरे-धीरे सब विस्मृत हो रहा है   

मस्तिष्क साथ छोड़ रहा है ..



ख़ामोश दिल की सुगबुगाहट ..

मैं अँधेरा लिखता हूँ...

मेरी ज़िन्दगी है 

सफ़ेद सफ़हे में लिपटे 

मेरे कुछ बेतरतीब हर्फ़, 

और मृत्यु

मेरी वो किताब है

जो कभी नहीं लिक्खी गयी..



कोई पूछे कि ये ग़ज़ल क्या है ..डॉ. वर्षा सिंह

हुस्न माइल ब-सितम हो तो ग़ज़ल होती है 

इश्क़ बा-दीदा-ए-नम हो तो ग़ज़ल होती है 

फूल बरसाएँ कि वो हँस के गिराएँ बिजली 

कोई भी ख़ास करम हो तो ग़ज़ल होती है..



।। इति शम ।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️

 

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

1894 ..मेहनत इतनी करो कि किस्मत भी बोल उठे

नमस्कार
आज फिर हम हैं सुबह से पाँच बज रहे हैं
मंगल प्रभात

जायका अलग है, 

हमारे लफ़्जो का…

कोई समझ नहीं पाता… 

कोई भुला नहीं पाता…


इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता


इमाम की तू प्यास बुझाए

पुजारी की भी तृष्णा मिटाए..

ए पानी बता तेरा मजहब कौन सा है.... ।।


विसर्जन पथ - -

अनंत काल तक मैं लौटना चाहूंगा उसी

नदी के किनारे, जहाँ छूती हों वट -

जटाएं बृहत् नदी के धरातल,

निःसीम आकाश के

तारे जिसके

वक्ष में

लिखते हैं कृष्ण राधा की पदावली, मैं -

जन्म जन्मांतर तक रहना चाहूंगा

उसी घाट के पत्थर में, जहाँ

उजान प्रवाह के नाविक

बाँध जाते हैं अपनी


मर्तबान ...

उस मर्तबान को सहेज रखती थी रसोई में 

मख़मली यादें इकट्ठा करती थी उसमें मैं 

जब भी ढक्कन हटाकर मिलती उन  से 

उसी पल से जुड़ जाती उन बिताए लम्हों से 

चिल्लर जैसे खनकतीं थीं वे यादें दिल में 

एक जाने-पहचाने एहसास के साथ  

उसे छूने पर माँ के हाथों का स्पर्श

महकने लगता हवा में 


पिता ....

एक ऐसा वजूद

जिसके घिसे  जूतों से

निकलता है संतानों के

अस्तित्व का मार्ग

जिनका जीवन में होना

सूरज सम उर्जा से

भरता रहना निरंतर


रुक जाते हैं आते आते

हमने तुम से लाख दिवाने देखे हैं...

छलक पड़े खाली पैमाने देखे हैं...!


कहने को तो अपने हैं दुनिया में सब...

मौके पर बनते बेगाने देखे हैं...!


हमने जिनकी ख़ातिर जग से बैर लिया...

रिश्तों में भी वो अनजाने देखे हैं...!
आज बस





सोमवार, 21 सितंबर 2020

1893... आज एक ही ब्लॉग से *हिन्दी आभा भारत*

 सादर नमस्कार
आज आपका परिचय
एक छुपे रुस्तम से करवा रही हूँ
भाई रवीन्द्र सिंह यादव

पूरी परिचय उन्हीं की कलम से

हिन्दी कविता,कहानी,आलेख,हाइकु आदि लेखन 1988 से जारी. आकाशवाणी ग्वालियर से 1992-2003 के बीच कविताओं, कहानियों एवं वार्ताओं,विशेष कार्यक्रमों का नियमित प्रसारण. वेबसाइट: हिन्दी आभा भारत, ब्लॉग: हमारा आकाश:शेष विशेष, मेरे शब्द-स्वर चैनल (YouTube.com). गृह ज़िला: इटावा (उत्तर प्रदेश ) 

कृतियाँ:1.प्रिज़्म से निकले रंग (काव्य संग्रह-2018 ) 

2. पंखुड़ियाँ (24 लेखक एवं 24 कहानियाँ-2018) 

3. प्यारी बेटियाँ / माँ (साहित्यपीडिया द्वारा प्रकाशित सामूहिक काव्य संग्रह-2018/2019) 

4.सबरंग क्षितिज:विधा संगम 2019,अयन प्रकाशन 

 सम्मान: साहित्यपीडिया काव्य सम्मान 2018 

संपादन:अक्षय गौरव पत्रिका (त्रैमासिक) 

अन्य: नव भारत टाइम्स, अमर उजाला काव्य आदि वेबसाइट पर रचनाओं का प्रकाशन। 

संप्रति: निजी चिकित्सा संस्थान में नई दिल्ली में कार्यरत।

उनके कलम से प्रसवित रचनाएँ...


माँ (वर्ण पिरामिड) ...

माँ  

सृष्टि 

स्पंदन  

अनुभूति 

सप्त स्वर में 

गूँजता संगीत 

वट वृक्ष की छाँव।  


कोई रहगुज़र तो होगी ज़रूर ....

चलते-चलते 

आज यकायक 

दिल में 

धक्क-सा हुआ 

शायद आज फिर 

बज़्म में आपकी 

बयां मेरा अफ़साना हुआ


सत्ता ...

जनतंत्र  में  अब 

कोई  राजा  नहीं

कोई  मसीहा  नहीं

कोई  महाराजा  नहीं

बताने  आ  रहा  हूँ  मैं,

सुख-चैन  से  सो  रही  सत्ता

जगाने  आ रहा  हूँ  मैं ।  


वो शाम अब तक याद है .....

वो शाम अब तक याद है 

दर-ओ-दीवार पर 

गुनगुनी सिंदूरी धूप खिल रही थी 

नीम के उस पेड़ पर 

सुनहरी  हरी पत्तियों पर 

एक चिड़िया इत्मीनान से 

अपने प्यारे चिरौटा से मिल रही थी 


अश्क का रुपहला धुआँ ....

बीते वक़्त की

एक मौज लौट आयी, 

आपकी हथेलियों पर रची

हिना फिर खिलखिलायी। 

मेरे हाथ पर 

अपनी हथेली रखकर 

दिखाये थे 

हिना  के  ख़ूबसूरत  रंग, 

बज उठा था 

हृदय में 

अरमानों का जलतरंग।

...
इति शुभम्
सादर


रविवार, 20 सितंबर 2020

1892..माँ तुझे सलाम

 सादर नमन
भाई कुलदीप जी को मातृशोक 
माँ हाटेशवरी ने उन्हें अपने पास बुला लिया


माताश्री नहीं रही
इस दारुण दुःख की घड़ी में हम सब
भाई कुलदीप जी के साथ हैं
अश्रुपूरित श्रद्धाञ्जली
आज का अंक 
माताश्री को समर्पित

माँ, सुन रही हो न ......

बिलकुल उलटा!

फिर भी तुम

लौट गयी 

उसी के पास !

कितनी 

भोली हो तुम!

माँ, सुन रही हो न......

माँ............!!!


"माँ" ...

दूर देश जा बैठी हो माँ!

यादों मे अब तो तुम्हारा

अक्स भी धुंधला पड़ गया है

सावन की तीज के झूले

अक्सर तुम्हारी याद दिलाते हैं



माँ मुझसे मिलने आती है ...

दुआओं के खजाने लुटाती है,

काँपते हाथों से

मेरा सिर सहलाती है,

मूक निगाहों से भी

कितना कुछ कह जाती है...

माँ मुझसे मिलने आती है....



मेरा वो रूठ जाना यूँ ही माँ -..

तुम जो रोज कहा करती थी --

धरती और माँ एक हैं दोनों ,

अपने लिए नहीं जीती हैं -

अन्नपूर्णा और नेक हैं दोनों ;

माँ बनकर मैंने जाना है -

औरो की खातिर जीना कैसा है ,

जीवन - अमृत पीने की खातिर -

मन के आंसूं पीना कैसा है -,



माँ...कभी धूप कभी छांव ...

माँ..

तुम हो साहस की सौगात,

 चिरजीवन का साया बनी हर बार 

तुम्हारे अंतस में छिपी हूँ मैं,

 बन करुणा का कोमल किरदार।



माँ ! तुम सचमुच देवी हो गई......

प्रेरणा हो तुम,प्रभु का वर हो।

किन पुण्यों कि फल हो माँ !?

जीवन अलंकृत करने वाली,

शक्ति एक अटल हो माँ !   ।


आदरणीय हो,पूज्यनीय हो।

तुम सरस्वती ,लक्ष्मी हो माँ !

मेरे मन-मन्दिर में बसने वाली

तुम सचमुच देवी हो माँ !! 

और अंत में माताश्री को शत-शत नमन
सादर


शनिवार, 19 सितंबर 2020

1891... जिज्ञासा

सभी को यथायोग्य

प्रणामाशीष

एक पल में टूट जाए सांस के ये धागे

तू जो मुंह फेरे सखी देह प्राण त्यागे

 पल पल तू देख मुझे ज़िंदगी गुजार दूँ

दूसरा उदाहरण

नायक नायिका के भाई का कत्ल करता है, जेल जाता है। नायिका के परिवार पर दबाव डलवाता है कि उसको निर्दोष साबित करने वाले पेपर पर हस्ताक्षर हो। नायिका के घर ,जेल से आता है और नायिका के कनपटी पर पिस्टल रखता है लेकिन नायिका की आँखों में उसे भय नहीं दिखलाई देता है जिसकी वजह से उसका चैन छीन जाता है और वह इश्क ... हाऊ... कैसे....

कवि और कविताएँ

चातक हैं, केकी हैं, सन्ध्या को निराश हो सो जाता है,

हारिल हैं – उड़ते –उड़ते ही अन्त गगन में खो जाता हैं ।

कोई प्यासा मर जाता हैं कोई प्यासा जी लेता हैं

कोई परे मरण जीवन से कडुवा प्रत्यय पी लेता हैं,

रहस्यवाद की अवस्थाएं

जिज्ञासा में साधक के मन में अज्ञात सत्ता के प्रति आकर्षण व उत्कंठा का भाव जागृत होता है। यह स्थिति न्यूनाधिक समस्त छायावादी कवियों के काव्य में पाई जाती है। दूसरी स्थिति में अज्ञात के प्रति आकर्षण एवं उत्कंठा तीव्र होने लगती है। साधक की आत्मा उस अज्ञात रहस्यमयी सत्ता को पाने के लिए व्याकुल हो उठती है। खोज का परिणाम होता है-मिलन। इस स्थिति में साधक की आत्मा अपने साध्य के साथ एकाकारता का अनुभव कर समस्त सुख-दुखों एवं साधना-पथ में आने वाली तमाम कठिनाइयों से ऊपर उठ कर एक चरम आनंद की उदात्त अनुभूति में डूब जाती है।

अथातो बसंत जिज्ञासा

 रसिक वह है जो नाट्य रस का आस्वाद लेने में सक्षम है। जिसमें सुरुचि, शिष्टता और बौद्धिक क्षमता है। रस जिनका और अधिक विस्तार करता है। लेकिन जबसे सिनेमाघरों और सड़कों पर सीटियां बजाने और फब्तियां कसने वालों को रसिक समझा जाने लगा है, तबसे किसी को रसिक कहना 'काव्यशास्त्रीय' नहीं 'जोखिम' की बात हो गई है।

अब जबकि जान गया हूँ

जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है

मेघ हमारी भाषा नहीं समझते

धरती माँ नहीं

तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...

यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो

बादलों से कुछ बूँदों की याचना करूँ तो

अपनी केवल धार 

कहने को तो वे भी कहती ही आई हैं कि हमने आपको केवल सभ्यता दी, विज्ञान दिया, और तंत्र दिया। संसाधन और क्षमताएं तो सब आपके पास थीं ही। दिमाग़ आपका था, ज्ञान हमने दिया। शक्ति आपके पास थी, लेकिन सोई हुई। हमने आपको सदियों की नींद से जगाया। आपको बताया कि आपके अतीत में गर्व करने को क्या है, और शर्म करने को क्या!

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भेंट होगी...

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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

1890..सच में ! कल भाग गई थी कविता

 शुक्रवारीय अंक में

आप सभी का स्नेहिल

अभिवादन।

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दूसरों को आईना दिखाने की होड़ में,

देख पाते नहीं हम सूरत कभी अपनी।


स्वर्ग बन जाती कब की अपनी धरती,

जो होती एक-सी हमारी कथनी-करनी।

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मेरे शहर की भोर में

होती नहीं आजकल

सोंधी सुगंध रोटी की, 

न ही दाल-भात में सनी दुपहरी

और न ही गोल रोटी की तरह

 चाँद को निहारती सुखभरी नींद,

चौक-चौराहों पर,बाज़ार-दोराहों पर

उदास और मायूस ...

ऊपर से बेखौफ़ और 

भीतर ही भीतर सहमी आँखें

वस्तुओं के दाम ऊँचे स्वर में 

तोलती-मोलती,

सबकी नज़रें बचाकर

बार-बार ज़ेब की रेज़गारी टोहती

चुनती-बीछती मिलती हैं 

चुटकीभर जरूरतें

 

और आपके शहर में....?

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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

पूछो न हिसाब मुझसे


बेवफ़ा हूँ मैं, ये सारी दुनिया कहती है

दिया न गया, कोई मुनासिब जवाब मुझसे ।


अँधेरे को समझना होगा नसीब अपना 

नाराज़ है 'विर्क', प्यार का आफ़ताब मुझसे ।


अमरत्व

इस ब्रह्माण्ड में

सब कुछ

परिवर्तित होता है

विलीन नहीं


कल भाग गयी थी कविता

कानफोड़ू जयकारों से

न चाहकर भी भरमाते हुए

सच में ! कल भाग गई थी कविता

आज लौटी है 

विद्रुप सन्नाटों के बीच

न जाने क्या खोज रही है .


श्राद्ध भोज बंद होना चाहिए

श्राद्ध क्या है ? 

श्रद्धा से किया गया कर्म को श्राद्ध कहते हैं | 

जिस काम में श्रद्धा नहीं है वह श्राद्ध नहीं है | 

परिवार में किसी की मृत्यु होने पर उनकी 

आत्मा की शांति के लिए लोग श्रद्धा पूर्वक 

भगवान से दिवंगत आत्मा की 

शांति के लिए प्रार्थना करते हैं |


तरक़्क़ी की महक ...

अबोध मन को समझाना न झुँझलाना तुम

आश्वासन की पटरी पर अंधा बन न लेटा करे।

तरक़्क़ी की महक फैलाती दौड़ती है लौहपथगामिनी !

उत्साह के झोंके की रफ़्तार को यों न बाँधा करे।



ग़लत पता ...

हो सके तो सजल ज़िन्दगी का

आभास छोड़ जाना, मुझे

ज्ञात है रस्मे दुनिया

का फ़रेब, कुछ

मरहमी

स्पर्श

अनायास छोड़ जाना, ग़लत ही

सही कोई ठिकाना, मेरे

पास छोड़ जाना।

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आज बस इतना ही
कल का अंक पढ़ना न भूले

कल आ रही हैं विभा दीदी अपनी 

चमत्कारिक प्रस्तुति के साथ
-श्वेता