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रविवार, 27 सितंबर 2020

1899 ...सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम

नमस्कार..
भाई कुलदीप जी आज
नहीं है...सुबह बात हुई उनसे
वो सामान्य हैं....
हमारी पसंद कुछ यूँ है....

सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम 
घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम
जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में
होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम

सुनो, महामारी के दौर में 
ख़ुद से ज़रा बाहर निकल जाना,
थोड़ी दूर रहकर 
ध्यान से देखना
कि क्या कुछ बचा है तुममें,


मेरी बेटी मन मोहनी
बहुत प्यारी  सबकी  दुलारी
मुझे बहुत भाग्य से मिली है
उस जैसा कोई गुणी नहीं है |


चौराहों  की रौनक छीन ली गई 
गलियों को उनकी हैसियत बताई गई 
पत्त्थर पर पैर पल-पल जीवन को 
मारने के लिए मजबूर किया गया 
सफ़ेद चील ने तजुर्बे के कान छिदवाए 
संस्कार कह रस्मों की माला पहनाई गई।



रक्तिम हुई क्षितिज सिंदूरी
आज साँझ ने माँग सजाई
तन-मन श्वेत वसन में लिपटे 
रंग देख कर आए रूलाई
रून-झुन,लक-दक फिरती 'वो',
ब्याहता अब 'विधवा' कहलाई

आज भी .
आज भी सूर्यांश की ऊष्मा  ने 
अभिनव मन  के कपाट खोले  ,
देकर ओजस्विता
किरणें चहुँ दिस  ,
रस अमृत घोलें  ..!!
आज भी चढ़ती धूप  सुनहरी ,
भेद जिया के खोले ,
....
आज बस..
कल की कल
सादर

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर संकलन. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद आज के संकलन में मेरी रचना शामिल करने के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।मेरे सृजन को स्थान देने हेतु सादर आभार आदरणीय सर।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बहुत आभारी हूँ सर,
    मेरी पुरानी रचना को स्नेह और मान दिया आपने।

    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति सभी लिंक्स बेहद उम्दा..
    मेरी रचना की पंक्ति को प्रस्तुति में शीर्षक में लेने एवं रचना को मंच पर स्थान देने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत अच्छा संकलन हैं | सभी रचनाएँ सराहनीय हैं |

    जवाब देंहटाएं

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