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गुरुवार, 25 अगस्त 2022

3496...अंकुरण से पूर्व ही, मरुथल- सी धरती हो गई...

 शीर्षक पंक्ति:आदरणीया डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री' जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं पसंदीदा रचनाएँ-

जीवन बोध

मोह,विछोह ना जान सकी,

रही मुग्ध निहार स्व- दर्पणमें!

भूली  सब रिश्ते नाते ,

जब डूबी सर्वस्व समर्पण में !

तुम से दूर रही तनिक भी

तड़पी ज्यों जल बिन मीन सदा!

सार गीता का समझकर मन मदन गोपाल कर

कर कहीं उपहास तो मनु जाँच ले अपना हृदय |
सामने उस ईश के तू क्यों खड़ा भ्रम पाल कर ||

त्याग के ही भाव में संतोष का धन है छुपा |
सार गीता का समझकर मन मदन-गोपाल कर ||

 385-इतना सा उपहार दे दो

 

अंकुरण से पूर्व हीमरुथल- सी धरती हो गई;

ताप कोई भी शेष होइस बीज को  संहार दे दो।

है पवन भी रुक्ष- सीवृक्ष कंटक बन खड़े;

इतनी -सी मेरी प्रार्थनामृत्यु को आकार दे दो।

इस पल में जो जाग गया

 
इस तरह वर्तमान सदा ही अतीत के पश्चाताप या भविष्य के भय का शिकार बनता रहता है. जो भी खुशी है वह इस क्षण में मिलती हैसुख की हर स्मृति बीते कल की छाया है. भविष्य की कल्पना कितनी भी सुखद हो वह वास्तविक नहीं है.

वितृष्णा - "ये कैसा प्रेमः था" ?

 
झुँझलाये चेहरे एवं बिखरे बालों पर हाथ फेरते हुए नेहा ने "जी" कहकर जबरन मुस्कुराते हुए आँखों से ही जैसे परिचय पूछा। तो वह  मुस्कराकर बोली,  "जी मैं सिया,  सिया शर्मा। वो सामने वाला फ्लैट हमारा है। अब आप यहाँ रहेंगे तो हम आपके पड़ोसी हुए"। फिर ट्रे को कुछ उठाकर दिखाते हुए बोली "अन्दर आ जाऊँ"?

 *****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


7 टिप्‍पणियां:

  1. अप्रतिम अंक
    सुंदर चयन
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर और भावपूर्ण रचनाओं के साथ एक सार्थक प्रस्तुति रवींद्र जी। सुधा जी मार्मिक कथा और अनीता जी के सार्थक लेख के साथ दोनों काव्याभिव्यक्तियां बहुत ही अच्छी लगी।मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए आभारी हूँ।सभी रचनाकारो को सस्नेह बधाई।आपको विशेष आभार और शुभकामनाएँ।🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्कृष्ट लिंको से सजी बहुत ही लाजवाब हलचल प्रस्तुति...
    मेरी रचना को सम्मिलित करने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.रविंद्र जी ! सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं

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