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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

3497....दूब उदासियों की

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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इतिहास साक्षी है हम उन्हीं को महान मानकर सम्मान देते हैं और.पूजते हैं जिन्होंने भावनाओं से ऊपर उठकर कर्म को सर्वोपरि माना।
महर्षि वेदव्यास ने तो स्पष्ट कहा कि 'यह धरती हमारे कर्मों की भूमि है।' कर्तव्य मनुष्य के संबंधों और रिश्तों से ऊपर होता है।
परंतु मनुष्य का जीवन भावनाओं के स्निग्ध स्पर्शों से 
संचालित होता है। भावनाएँ ही हैं जो सामाजिक रिश्तों का कारक है,जीवन के सुख-दुख की मूल धुरी भावनाएँ ही हैं।
भावनाओं के प्रवाह में बुद्धि या तर्क का कोई स्थान नहीं होता।
भावनाओं के संसार में जन्मे अनेक रगों में सबसे सुंदर है
शब्दों की कलाकारी का रंग,जो मन को उसकी कोमलता और स्पंदन का एहसास दिलाता है।
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आज मैं लेकर आई हूँ ऐसे ही कुछ खूबसूरत एहसास 
 पढ़िए आज की पहली रचना

नींद भरी है आँखें, साँझ की उबासियों सी
मुरझा जायेंगी भोर होते ही,  दूब उदासियों की

उगने ही कब देती हैं भला
दूब उदासियों की ..
गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत
सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ 

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सपनों पर टाँक कर चिथड़े पैबंद
राह देखते रहे सुखों की,होकर नज़रबंद

धोखेबाज खुश्बुओं के वृत
केंद्र बदबुओं से शासित है 
नाटक-त्राटक,चढ़ा मुखौटा 
रीति-नीति हर आयातित  

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संवाद से निर्लिप्त प्रश्न कौन से कौन तक
मनन मन का शायद मौन से मौन तक


वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम
उस समय ज़िंदा थी वह
स्वर था उसमें 
हवा और पानी की तरह
बहुत दूर तक सुनाई देता था 
ज़िंदा हवाएँ बहुधा अखरती हैं 

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कुछ अभिव्यक्तियाँ स्वीकार है बिना किसी तर्क
उद्विग्न,ज्वलंत विषय-विमर्शो से पड़ता है फ़र्क

प्रेम वर्जित विषय था
इनके बसावट में
और जहां तक भूगोल था इनका
कोलतार की सड़क नहीं पहुंची थी वहां
विवाह के उपरांत : अगली सुबह
इनकी विदाई बेला तक
गौनहाई विवाहिताइन स्त्रियों का संसार
अब रोज़ नया
अपितु दिन का हर पहर भी नवीन



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और चलते-चलते पढ़िये
एक वैचारिकी मंथन 
 दाँवपेंच राजनैतिक बिसात के गूढ़ गहन
कौन समझे बेबस मोहरों का भयादोहन


सामूहिक एकता का खंडन
समाज को 
ग़ुलाम बनाए रखने के
चालाक उपक्रमों पर मंथन
जल के 
वैकल्पिक स्रोतों का अन्वेषण
भावनात्मक आदर्शों का 
चतुर संप्रेषण  

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आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अकं लेका रही हैं
प्रिय विभा दी।



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10 टिप्‍पणियां:

  1. जी ! सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. अपने मंच पर अपनी भावनाओं की बहुरंगी प्रस्तुति के संग मेरी बतकही को मौका देने के लिए .. बस यूँ ही ...
    आपकी आज की भावनापूर्ण बल्कि परिपूर्ण भूमिका के लिए मेरी टुच्ची प्रतिक्रिया देने हेतु और अन्य बेशकीमती रचनाओं को पढ़ने के लिए मुझे पुनः आना होगा .. मिलते हैं एक 'ब्रेक' के बाद .. बस यूँ ही ...

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  2. स्वेता जी कमाल की भूमिका लिखी है
    उसके लिए तो साधुवाद

    बेहद प्रभावी रचनाओं को संजोया है
    सभी रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुंदर भूमिका श्वेता दी आपने सच कहा भावनाएँ ही है जो मैंने इंसान का दर्जा दिलाती। कर्म से ही व्यक्ति महान बनता है।

    अभी पढ़ती हूँ सभी रचनाएँ ' मौन से मौन तक 'को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
    सादर स्नेह

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह! दी बहुत सुंदर संकलन गज़ब की रचनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की भूमिका में कर्म और भावनाओं की तुलनात्मक विश्लेषण अति सूक्ष्म ढंग से किया है।
    साथ ही हर रचना के साथ दो-दो पँक्तियों का योग, वो भी हर रचना के शीर्षक के साथ-साथ, आपकी प्रतिभा को उजागर करता है ...
    मसलन मेरी बतकही के साथ -
    "नींद भरी है आँखें, साँझ की उबासियों सी
    मुरझा जायेंगी भोर होते ही,  दूब उदासियों की"
    अब एक नज़र आज की सभी रचनाओं पर .. बस यूँ ही ...

    जवाब देंहटाएं
  6. प्रिय श्वेता

    मौन से मौन तक
    राह देखते रहे
    फर्क इतना है कि
    दूब उदासियों की
    भयादोहन न होकर
    कोमल सा ख्याल था ।

    आज की सभी रचनाएँ बेहतरीन थीं । डूब उदासियों की मन के कोमल भावों की अभिव्यक्ति थी तो राह देखते रहे में आम इंसान का दर्द था मौन से मौन तक ने झकझोर कर रख दिया । भयादोहन आज के वक़्त का तप्सरा कहती रचना है और फर्क में कवि की कुछ कविताओं को लिया है ।कविताएँ बहुत अच्छी हैं , लेकिन एक साथ इतनी कविताएँ पढ़ कर उनके साथ न्याय नहीं कर सकते । इसीलिए मैं उनके बारे में कुछ नहीं लिख पा रही । हर रचना कम से कम इतनी गंभीर रचनाएँ चिंतन मनन करने का समय माँगती हैं । तो विष्ट साहब की रचना पर कोई टिप्पणी नहीं ।
    आज की भूमिका हम सब सृजनशील के लिए है , संवेदनाएँ ही मन के भावों को उजागर करती हैं और शब्द उनको दूसरों तक पहुँचाने के वाहक बनते हैं । सुंदर भूमिका के साथ सार्थक सूत्रों का चयन । आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति प्रिय श्वेता! धरती भले कर्मों की भूमि कही जाती हो पर ये कर्म भी भावनाओं से ही संचालित है। यही प्रेरक तत्व हैं इन कर्मों के लिए।और भावनाएँ बुद्धि और तर्क से बहुत दूर होती हैं। जब तक इन्सान संवेदनशील नहीं होता, वह समाज,परिवार और राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभा सकता।आज की रचनाओं के रचनाकारो को सस्नेह बधाई।और तुम्हें आभार इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए।🌷🌷🌹🌹♥️♥️

    जवाब देंहटाएं

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