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बुधवार, 24 अगस्त 2022

3495..मुक्ति का गीत

 ।प्रातः वंदन ।।

"किसी पर सुब्ह़ आता है किसी पर शाम आता है

हमारे दिल को ले-दे कर यही इक काम आता है

वही अंजाम होता है हर इक आग़ाज़ का अपने

हमारा हर क़दम नाकामियों के काम आता है

सज़ाएं फिर मुक़र्रर हो रही हैं बे-गुनाहों की

ये देखें अबके सर पर कौन-सा इल्ज़ाम आता है"

 राजेश रेड्डी

 चलते ,पढ़ते नज़र पड़ी और ठहरीं जिस पर वो आप सभी के समक्ष परोस रही हूँ...






साहित्यकार के चिंतन का पंछी हमेशा ही उड़ान पर रहता है जो एक अच्छा संकेत भी है।अवसर के अनुकूल भी साहित्यकार की लेखनी कुछ न कुछ सार्थक लिखकर अपने दायित्व का निर्वहन करती रहती है..

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किनारों पर


खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

हर बार, छू जाती है, जो, आकर किनारों पर,
और लौट जाती है, न जाने किधर,
फिर उठती है, बनकर..
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कुदरत का खेल

 नीर निधि को नहीं पता,

अंदर ज्वाला जलती है।

बेखबर, अंतस आतप,

जलधि लहर उछलती है।

उच्छल-लहरी, ललना अल्हड़,

श्रृंग उछाह पर चढ़ती..

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   किसी के लिए दाना-पानी की
   व्यवस्था करने से
   नहीं मिल जाती
   उस पर हुक्म चलाने की सिद्धि
   सीखा यह मैंने
   नन्ही चिड़िया से !

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मुक्ति का गीत


मुक्त हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !

मुक्त हूँ हर बात से उस 

हर घड़ी जो टोकती थी,

याद कोई जो बसी थी ।।

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

                       


7 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात! नयी सुबह की तरह ताज़गी भरी प्रस्तुति! आभार!

    जवाब देंहटाएं
  2. सार्थक प्रस्तुति । मुक्ति का गीत ये लिंक नहीं खुल रहा ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर रचनाओं का लिंक! अत्यंत आभार!!!!

    जवाब देंहटाएं

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