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गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

4086...सूखी दीवारें रचती रहती हैं रेत के टीले...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ. (सुश्री) शरद सिंह जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक पढ़िए चुनिंदा रचनाएँ-

नेति नेति अन्त नहीं है, अन्त नहीं है!

डाकदर साब बड़े भले मानुष हैं। दरवाजा खोलने के बाद पलट के नहीं देखते हैं। कुछ नहीं बोलते-बताते हैं। मैं अपने मन से काम कर देती हूँ! काम करना ही क्या रहता हैबस रोटी भुजिईया बनाना रहता है रोज के रोज।

यह तो तुम जानों…! ऊँच-नीच होने वाले इस ज़माने में किस पर कितना विश्वास करना है!

पाँचों उँगली एक बराबर त नहीं ही होता है न?”

कविता | अहसास | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अब कोलाहल है

पर वह

स्वर नहीं

सूखी दीवारें

रचती रहती हैं

रेत के टीले

हर पहलू

हर करवट

के साथ

भयानक काली रात

पत्नी का हाथ पति से छूटा

बिछड़ गए अपने अपनों से

परिवार के परिवार लुप्त हो गए

क्षण भर में विलिप्त हो गए

वक़्त वो तो गुजर गया

लेकिन कैसे भर पाएंगे

वो गहरे ज़ख्म, जो छोड़ गए

दुख भरी दास्तां पीछे अपने

७६०.नरम-दिल पहाड़

साफ़ पानी की पतली धार

थोड़े-थोड़े क़दमों के फ़ासले पर

अपनी परिचित आवाज़ में

व्यस्त-सा सलाम करती

सर्र से निकल जाती है.

भूमंडलीकरण का प्रभाव

आज की पीढ़ी हिन्दी साहित्य के स्थान पर अंग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़ना अधिक पसंद करती है| हिन्दी का कोई उपन्यास अगर पढ़ना चाहें भी तो वे उसका अंग्रेज़ी में अनूदित वर्जन ही पढ़ना चाहेंगे हिन्दी में नहीं| यहाँ तक कि बच्चों के लिए भी अगर कॉमिक्स खरीदना हों तो वे अमर चित्र कथा, पंचतंत्र या जातक कथाओं के कॉमिक्स भी अंग्रेज़ी भाषा में अनूदित ही खरीदते हैं क्योंकि बच्चे ढाई तीन साल की उम्र से ही अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं इसलिए उन्हें हिन्दी न तो पढ़ना आती है, न लिखना आती है, न ही बोलना या समझना आती है|

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रवीन्द्र सिंह यादव


4 टिप्‍पणियां:

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