।। प्रातः वंदन।।
“संविधान में जूते मारने का बुनियादी अधिकार तो होना ही चाहिए। आदमी के पेट में अन्न न हो, शरीर पर कपड़े न हों, पर पाँवों में जूता ज़रूर होना चाहिए, जिससे वह जब चाहे, बुनियादी अधिकार का उपयोग कर सके।”
दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...
।। प्रातः वंदन।।
“संविधान में जूते मारने का बुनियादी अधिकार तो होना ही चाहिए। आदमी के पेट में अन्न न हो, शरीर पर कपड़े न हों, पर पाँवों में जूता ज़रूर होना चाहिए, जिससे वह जब चाहे, बुनियादी अधिकार का उपयोग कर सके।”
शीर्षक पंक्ति :आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
मंगलवारीयअंक लेकर हाज़िर हूँ।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ -
मैं टकटकी बांधे देखता रहा उधर,
फिर भी चली गई भैंस पानी में.
न झुकाऒ तुम निगाहे कहीं रात ढल न जाये .....
एक लम्बी अवधि के बाद फिर से प्रोग्राम बना था घूमने का और वह भी मेरी मनपसंद जगह का जिसे देखने की साध वर्षों से अपने मन में संजोये थी और जहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता के बारे में पढ़ सुन कर उसे साक्षात देखने की उत्सुकता अपने चरम पर थी ! आप समझ तो गए ही होंगे यह स्थान है उत्तर पूर्वी भारत का बेहद खूबसूरत स्थान मेघालय !
जय मां हाटेशवरी......
सादर नमन.....
हज़ार बर्क़ गिरे
लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे
जो खिलने वाले हैं ---Sahir Ludhianvi
अब पेश है मेरी पसंद.....
हर रोज़ हमने देखा घुलती है चाँदनी
अपनी ही कोई कमी है हमें दूसरों में दिखती
जब-जब बहस का मूड करे, अच्छे से सोच लें
जाएँगे जीत खो के चैन, सच इसको मान लें
तब कहीं जा के करें आप ऐसी दिल्लगी
चर्चे जहां में और भी हैं झगड़ों को छोड़कर
उनका ही क्यों न रूख करें, पाएँगे लाभकर
काँटों को छोड़ दीजिए, देखें गुलाब भी
मेरी ही बर्बादी का जश्न क्यों हो रहा है?
मेरी दहलीज़ यूँ वीरान क्यों पड़ी है,
आँसू मुझसे इतनी वफ़ा क्यों कर रहे हैं?
तड़प और तन्हाई बाराती बनकर आये हैं,
मेरी ही बर्बादी का जश्न क्यों हो रहा है?
ख्वाब टूटने से पहले जुड़ क्यों नहीं गए,
बिखरे मोतियों को किसी ने समेटा क्यों नहीं?
मेरी फ़ितरत में तो बेवफ़ाई कभी शामिल ना थी,
फिर किसी को मुझ पर जरा सा भी भरोसा क्यों नहीं?
आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे-
मैँ भटकता ही रहा दर्द के वीराने में
वक़्त लिखता रहा चेहरे पे हर पल का हिसाब
मेरी शोहरत मेरी दीवानगी की नज़र हुई
पी गई मय की बोतल मेरे गीतोँ की किताब
आज लौटा हूँ तो हँसने की अदा भूल गया
ये शहर भूला मुझे मैँ भी इसे भूल गया
मेरे अपने मेरे होने की निशानी माँगें
तुम्हारी स्मृतियों से
ये रोपती हैं
जीवन राग के साथ
गुमसुम सी यादें
लांघते हुए
उस समय को
कि जिसकी प्रांजल हँसी
समाई हुई है
मेरे अंदर
बहुत गहरे में कहीं पर ।
दोहे "सूरज से हैं धूप"
चन्दा से है चाँदनी, सूरज से हैं धूप।
सबका अपना ढंग है, सबका अपना रूप।।
--
थोड़े से पीपल बचे, थोड़े बरगद-नीम।
इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।।
धन्यवाद।
जय मां हाटेशवरी.....
सादर नमन......
चल यार एक नई शुरुआत करते है,
जो उम्मीद जमाने से की थी,
वो अब खुद से करते है !
प्रतीक्षारत
विश्वास में लिपटा
शून्य था पसरा
आस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी
उसमें पानी भी कहाँ था?
मुहब्बत के ज़ख़्मों का, पूछो न हिसाब मुझसे
बेवफ़ा हूँ मैं, ये सारी दुनिया कहती है
दिया न गया, कोई मुनासिब जवाब मुझसे ।
अँधेरे को समझना होगा नसीब अपना
नाराज़ है 'विर्क', प्यार का आफ़ताब मुझसे ।
कहना चाहते हैं ..
भाषा मेरी है शब्द भी मेरे हैं मुझे कहने दो,
क्यों मेरी जुबां अपने शब्द थोपना चाहते हैं।
रोटियों के लिए खाद्यान्न फसलें जरुरी हैं
क्यों खेतों में नागफनी बबूल बोना चाहते हैं।
हमें जिसकी जरूरत है वही चाहते हैं वीर
जो पसंद नहीं वह क्यों हमें देना चाहते हैं।
हाईकू
बचाओ मुझे
४-प्यार से बंधे
इतने मजबूत
उसे जकडे
५-तेरा मेरा प्यार
इतना नाजुक है
मोम जैसा है
चिट्ठी जो हरदम अधूरी पढ़ी जाएगी
मुझे माफ कर देना, मैं नहीं जानता था कि तुम्हें उनसे इस तरह आज़ाद करना होगा। अपने कंधे पर रखे हुए...
उन्हें माफ कर देना, वो नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
जहां हो, वहां खुश रहना। मुझसे लड़ने के नए रास्ते खोजने में कोई कमी मत रखना। मुझे इसकी आदत पड़ी हुई है।
इस आदत के बिना कैसे रहूंगा, बताओ..
कितना अजीब होता
शायद कुछ
ख़ुश भी होते
बदलते समय के
मुरीद भी होते
उम्र, एक नम्बर
कहने वाले
हमें एक नम्बर का
चालू कहते
धन्यवाद।
जितना तेरा दिमाग है,
उतना तो उसका खराब रहता है।
हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
दर्द बेवाओं का वो क्या जाने
वो जो हरी चूड़ियाँ बनाता है
मैं हर शायर में ये भी देखता हूँ
बिना माइक के वो क्या बोलता है
जो मैं हूँ वो मैं जानता हूँ तुम अंदाजा लगाओ इतनी तुम्हारी औकात नहीं...। कहा जाता है फलां की इात ही क्या है उसे चाहे जो बेइात कर देता है। सब शब्द मिलकर हमारे चरित्र की तरफ इशारा करते हैं। औकात, वजूद, हैसियत और इात। उर्दू एक नफासत और नजाकत वाली भाषा है। हमारी संस्कृति में इतनी मिलजुल गई है सदियों से यह चल रहा है यह सिलसिला। भूख से हलकान है मजलूम तिरे आतिश-ए-शहर में
गुर्बत में हक का निवाला भी खा गया कोई ।
घरों में कैद है जिंदगी फिज़ाओं में पसरा है सन्नाटा
अकड़ना छोड़ दे अब, तेरी औकात बता गया कोई।
हम तो कठपुतली हैं भइया खूब नचाये नाचेंगे
है नकेल जिस के हाथों में चरण उसी के चापेंगे
पद की शोभा ही क्या कम है जिस पर शोभित हैं भइया
हम तो मैया के कूकर हैं पूंछ हिला कर नाचेंगे |
मादा उल्लू ने अपने पीछे पलकें झपकाते हुए एक पंक्ति से बैठे अपने बच्चों की ओर इशारा किया। पूरे दरबार में हंसी का ठहाका गूंज गया। महारानी ने एक क्षण व्यर्थ किए बिना अगले अभ्यर्थी के लिए आवाज लगाई। व्यक्ति को अपनी क्षमता पहचान कर अपनी औकात में रहना चाहिए।
वो रवैया (एटीट्यूड/Attitude) वहीं दिखलाते हैं जहाँ अन्य अपनी औकात दिखाते...
घंटों मोबाइल या लैपटॉप या कंप्यूटर की सिकीं से
बुझी आँखों के पीछे जो दर्द होता है
घुटनों का , रीढ़ की हड्डी का या ढीली पड़ती पकड़ का
उसका जिक्र कहाँ करना चाहता है कोई
और करे भी कैसे जब कोई सुनना ही नहीं चाहता ।
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
शीर्षक पंक्ति:आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाएँ लेकर हाज़िर हूँ-
माफ़ कर देता हूँ
एक वादे पे
अजीब है ये दर्द ए ला इलाज, यकसां जीना मरना,
लौटने का वादा किया लेकिन लौट कर नहीं आया,
शायरी | हमारी भूल थी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
राजदंड सेंगोल: इतिहास के आइने से लेकर सेंट्रल विस्टा तक
पर हमारा
तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर
देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि
विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही
घुंट जाता होगा .. शायद ...
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
।। प्रातः वंदन।।
एक अंकुर हुआ भोर का प्रस्फ़ुटित
मुझे भी चलना है
तुम्हारे साथ..
तुम से कदम मिलाकर
चल पड़ूँगी
इतना भरोसा तो है मुझे ..
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श्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित-
"इस दुनिया में तीसरी दुनिया"
संपादक- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', सुरेश सौरभ
(किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन)
संपादकीय से-
■ डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
प्रस्तुत लघुकथा-संकलन "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" हमारे अपने समाज की ही एक उपेक्षित गाथा है। सदियों के दंश झेल कर यह गाथा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि मेरा दोष क्या? ..
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।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
ज़रूर सुनें जोश-ओ-जबान
सादर अभिवादन