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बुधवार, 31 मई 2023

3774...बात निकली..

 ।। प्रातः वंदन।।

“संविधान में जूते मारने का बुनियादी अधिकार तो होना ही चाहिए। आदमी के पेट में अन्न न हो, शरीर पर कपड़े न हों, पर पाँवों में जूता ज़रूर होना चाहिए, जिससे वह जब चाहे, बुनियादी अधिकार का उपयोग कर सके।”

- हरिशंकर परसाई
इसी विचारोत्तेजक लेख के साथ ..षडयंत्र के साथ विमर्श ✍️


[30/05, 8:21 am] विभा रानी श्रीवास्तव: प्रियंका श्रीवास्तव की रचना के शुरू में ही लेखकीय प्रवेश है।
[30/05, 8:40 am] सिद्धेश्वर : 🔷 आज अधिकांश लघुकथाएं, लघुकथा के मानक पर खरी नहीं उतर रही। हम लोग प्रोत्साहित करने के लिए प्रकाशित कर देते हैं, किन्तु उन्हें लघुकथा लिखना..
🌟

तजुर्बा ज़िंदगी जीना सिखाता है

ज़िंदगी का क्या सलीका है, यह बताता है

तजुर्बेकार होना फ़क्र की है बात..
🌟
धनुर्धरों से
बंशी वारे से 
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से 

ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है
थोड़ी सी किलकारी

🌟

राम एक नाम नहीं

राम एक नाम नहीं 
जीवन का सोपान हैं। 
दीपावली के टिमटिमाते तारे 

🌟 

प्रतीक्षारत

बँधी भावना निबाहते 

हाथ से मिट्टी झाड़ते हुए

खुरपी से उठी निगाहों ने 

 क्षणभर वार्तालाप के बाद ..

🌟

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️

मंगलवार, 30 मई 2023

3773...मैं टकटकी बांधे देखता रहा उधर...

शीर्षक पंक्ति :आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

मंगलवारीयअंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ -

७१५.पानी में

मैं टकटकी बांधे देखता रहा उधर,

फिर भी चली गई भैंस पानी में. 

न झुकाऒ तुम निगाहे कहीं रात ढल न जाये .....




एक लम्बी अवधि के बाद फिर से प्रोग्राम बना था घूमने का और वह भी मेरी मनपसंद जगह का जिसे देखने की साध वर्षों से अपने मन में संजोये थी और जहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता के बारे में पढ़ सुन कर उसे साक्षात देखने की उत्सुकता अपने चरम पर थी ! आप समझ तो गए ही होंगे यह स्थान है उत्तर पूर्वी भारत का बेहद खूबसूरत स्थान मेघालय !

चूड़ियाँ

कब होगी..........
गोरी कलाई में झंकारती हैं चूड़ियांँ।
झनक-झनक ये पुकारती हैं चूड़ियांँ।
तेरे बिना बालमा कटती ना रात रे।

अभी तक सांसों
के पृष्ठ हैं गीले, कुछ
ख़ामोश शब्द
चाहते हैं
नए
अर्थों में ढलना
*****
फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


 

सोमवार, 29 मई 2023

3772....वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

जय मां हाटेशवरी......
सादर नमन.....
हज़ार बर्क़ गिरे
लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे
जो खिलने वाले हैं ---Sahir Ludhianvi
अब पेश है मेरी पसंद.....

हर रोज़ हमने देखा घुलती है चाँदनी
अपनी ही कोई कमी है हमें दूसरों में दिखती
जब-जब बहस का मूड करे, अच्छे से सोच लें
जाएँगे जीत खो के चैन, सच इसको मान लें
तब कहीं जा के करें आप ऐसी दिल्लगी 
चर्चे जहां में और भी हैं झगड़ों को छोड़कर 
उनका ही क्यों न रूख करें, पाएँगे लाभकर
काँटों को छोड़ दीजिए, देखें गुलाब भी

मेरी ही बर्बादी का जश्न क्यों हो रहा है?
मेरी दहलीज़ यूँ वीरान क्यों पड़ी है,
आँसू मुझसे इतनी वफ़ा क्यों कर रहे हैं?
तड़प और तन्हाई बाराती बनकर आये हैं,
मेरी ही बर्बादी का जश्न क्यों हो रहा है?
ख्वाब टूटने से पहले जुड़ क्यों नहीं गए,
बिखरे मोतियों को किसी ने समेटा क्यों नहीं?
मेरी फ़ितरत में तो बेवफ़ाई कभी शामिल ना थी,
फिर किसी को मुझ पर जरा सा भी भरोसा क्यों नहीं?

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे-
मैँ भटकता ही रहा दर्द के वीराने में
वक़्त लिखता रहा चेहरे पे हर पल का हिसाब
मेरी शोहरत मेरी दीवानगी की नज़र हुई
पी गई मय की बोतल मेरे गीतोँ की किताब
आज लौटा हूँ तो हँसने की अदा भूल गया
ये शहर भूला मुझे मैँ भी इसे भूल गया
मेरे अपने मेरे होने की निशानी माँगें

तुम्हारी स्मृतियों से
ये रोपती हैं
जीवन राग के साथ
गुमसुम सी यादें
लांघते हुए
उस समय को
कि जिसकी प्रांजल हँसी
समाई हुई है
मेरे अंदर 
बहुत गहरे में कहीं पर ।

दोहे "सूरज से हैं धूप"
चन्दा से है चाँदनी, सूरज से हैं धूप।
सबका अपना ढंग है, सबका अपना रूप।।
--
थोड़े से पीपल बचे, थोड़े बरगद-नीम।
इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।।

धन्यवाद।

रविवार, 28 मई 2023

3771.....चल यार एक नई शुरुआत करते है,

जय मां हाटेशवरी.....
सादर नमन......
चल यार एक नई शुरुआत करते है,
जो उम्मीद जमाने से की थी,
वो अब खुद से करते है !

अब पेश है आज के लिये मेरी पसंद.....

प्रतीक्षारत
विश्वास में लिपटा
शून्य था पसरा 
आस-पास कोई वृक्ष न था
कुएँ से लौटी खाली बाल्टी 
उसमें पानी भी कहाँ था?

मुहब्बत के ज़ख़्मों का, पूछो न हिसाब मुझसे
बेवफ़ा हूँ मैं, ये सारी दुनिया कहती है
दिया न गया, कोई मुनासिब जवाब मुझसे ।
अँधेरे को समझना होगा नसीब अपना 
नाराज़ है 'विर्क', प्यार का आफ़ताब मुझसे ।

कहना चाहते हैं ..
भाषा मेरी है शब्द भी मेरे हैं मुझे कहने दो,
क्यों मेरी जुबां अपने शब्द थोपना चाहते हैं।
रोटियों  के  लिए  खाद्यान्न फसलें  जरुरी हैं
क्यों खेतों में नागफनी बबूल बोना चाहते हैं।
हमें  जिसकी  जरूरत है वही चाहते हैं वीर
जो पसंद नहीं वह क्यों हमें देना  चाहते हैं।

हाईकू
बचाओ मुझे
४-प्यार से  बंधे   
इतने मजबूत  
उसे  जकडे  
५-तेरा  मेरा प्यार
इतना नाजुक  है
मोम जैसा है

चिट्ठी जो हरदम अधूरी पढ़ी जाएगी
मुझे माफ कर देना, मैं नहीं जानता था कि तुम्हें उनसे इस तरह आज़ाद करना होगा। अपने कंधे पर रखे हुए...
उन्हें माफ कर देना, वो नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
जहां हो, वहां खुश रहना। मुझसे लड़ने के नए रास्ते खोजने में कोई कमी मत रखना। मुझे इसकी आदत पड़ी हुई है। 
इस आदत के बिना कैसे रहूंगा, बताओ..

कितना अजीब होता
शायद कुछ 
ख़ुश भी होते
बदलते समय के
मुरीद भी होते
उम्र, एक नम्बर 
कहने वाले 
हमें एक नम्बर का 
चालू कहते

 

धन्यवाद।

शनिवार, 27 मई 2023

3770... औकात

    जितना तेरा दिमाग है,

उतना तो उसका खराब रहता है।

 हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...   

दर्द बेवाओं का वो क्या जाने

वो जो हरी चूड़ियाँ बनाता है

मैं हर शायर में ये भी देखता हूँ

बिना माइक के वो क्या बोलता है

जो मैं हूँ वो मैं जानता हूँ तुम अंदाजा लगाओ इतनी तुम्हारी औकात नहीं...। कहा जाता है फलां की इात ही क्या है उसे चाहे जो बेइात कर देता है। सब शब्द मिलकर हमारे चरित्र की तरफ इशारा करते हैं। औकात, वजूद, हैसियत और इात। उर्दू एक नफासत और नजाकत वाली भाषा है। हमारी संस्कृति में इतनी मिलजुल गई है सदियों से यह चल रहा है यह सिलसिला। भूख से हलकान है मजलूम तिरे आतिश-ए-शहर में

गुर्बत  में  हक  का  निवाला  भी  खा  गया  कोई ।

घरों में कैद है जिंदगी फिज़ाओं में पसरा है सन्नाटा

अकड़ना छोड़ दे अब, तेरी औकात बता गया कोई।

हम तो कठपुतली हैं भइया खूब नचाये नाचेंगे

है नकेल जिस के हाथों में चरण उसी के चापेंगे

पद की शोभा ही क्या कम है जिस पर शोभित हैं भइया

हम तो मैया के कूकर हैं पूंछ हिला कर नाचेंगे |

मादा उल्लू ने अपने पीछे पलकें झपकाते हुए एक पंक्ति से बैठे अपने बच्चों की ओर इशारा किया। पूरे दरबार में हंसी का ठहाका गूंज गया। महारानी ने एक क्षण व्यर्थ किए बिना अगले अभ्यर्थी के लिए आवाज लगाई। व्यक्ति को अपनी क्षमता पहचान कर अपनी औकात में रहना चाहिए।

वो रवैया (एटीट्यूड/Attitude) वहीं दिखलाते हैं जहाँ अन्य अपनी औकात दिखाते...

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पुनः भेंट होगी...
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शुक्रवार, 26 मई 2023

3769....पाँव के पंख


शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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राजनीतिज्ञ हर जगह एक जैसे हैं। वे लोग वहां पुल बनाने का वादा करते हैं जहां नदी ही नहीं होती...!!

राजनीति बिना रक्तपात के युद्ध है जबकि युद्ध रक्तपात से राजनीति है।

राजनीति एक पेंडुलम है जिसकी अराजकता और अत्याचार के बीच झूओं को सदा के लिए भ्रम में डाल दिया जाता है...!!  - अल्बर्ट आइंस्टीन

राजनीति का नैतिकता से कोई संबंध नहीं है...!! -निकोलो मैकियावेली

 राजनीति कोई खेल नहीं है। ये सबसे गंभीर व्यवसाय है...!
-विंस्टन चर्चिल

राजनीति के प्रभाव,दुष्प्रभाव का देश की जनता पर क्या असर हो रहा है आप देख, समझ सकते हैं।
आप क्या सोचते है राजनीति के बारे में कृपया अपने विचार साझा करें।
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आइये अब आज की रचनाओं के संसार में-


रेशम बुनने वाले मन बहुत कोमल होते हैं  
कान लगा कर सुनो ध्यान से उनके मधुर रागिनी में बजते अन्तर्नाद में छिपे विलाप को 
बेशक वे तुम्हारी धूप चुराने का हौसला रखते हों पर धूप से झुलसते वे भी हैं 
पाँव उनके भी  लहुलुहान होते हैं ?
जिन रास्तों से गुजर कर वे तुम तक आए 
बेशक वे फूलों भरे तो न होंगे 
कोई भी रास्ता सिर्फ़ फूलों भरा कब होता है भला ?



शब्द कहाँ गुम हो जाते थे जान नहीं पाए अब तक,
चुपके-चुपके आँखों-आँखों इश्क़ पुराना होता था.

अपनी पैंटें, अपने जूते, साझा थे सबके मोज़े,
चार भाई में, चार क़मीज़ें, मस्त गुज़ारा होता था.

घंटों मोबाइल या लैपटॉप या कंप्यूटर की सिकीं से 

बुझी आँखों के पीछे जो दर्द होता है 

घुटनों का , रीढ़ की हड्डी का या ढीली पड़ती पकड़ का 

उसका जिक्र कहाँ करना चाहता है कोई 

और करे भी कैसे जब कोई सुनना ही नहीं चाहता ।  

यह वह सिरे वाली नदी नहीं है



पहले सिरे का वह बर्फ वाला
नुकीला छोर 
टूटकर नदी के साथ बह गया।
अब उस नदी का 
पहला सिरा भी नहीं है
केवल 
हांफती हुई जिद का कुछ 
सतही आवेग है
और चलते-चलते 
अत्यंत रोचक पुस्तक समीक्षा 



यूरोप के कई स्थानों की यात्राओं को  इस पुस्तक में सहेजा है । ये यात्राएँ  लेखिका द्वारा अलग अलग समय  पर की गई हैं । किस जगह क्या परेशानी आ सकती है ,हर जगह को देखने और समझने के लिए क्या क्या जानना आवश्यक है , सारी ही बातों का ज़िक्र इस पुस्तक में मिलता है । किस जगह शाकाहारी भोजन उपलब्ध होता है और कहाँ केवल मांसाहारी ही उपलब्ध होगा ,  किस शहर का क्या विशेष खाद्य है इसका जिक्र भी शिखा करना नहीं भूली है । यहाँ तक कि उस खाद्य या पेय की रेसिपी भी लिख डाली है । 
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आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।




आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।




गुरुवार, 25 मई 2023

3768...लौटने का वादा किया लेकिन लौट कर नहीं आया...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाएँ लेकर हाज़िर हूँ-

कॉकरोच से गुफ्तगू

पर जाने दे

माफ़ कर देता हूँ

एक वादे पे

दिलकश मंज़र--

अजीब है ये दर्द ए ला इलाज, यकसां जीना मरना,
लौटने का वादा किया लेकिन लौट कर नहीं आया,

शायरी | हमारी भूल थी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

राजदंड सेंगोल: इत‍िहास के आइने से लेकर सेंट्रल व‍िस्टा तक

सेंगोल को उस समय तमिलनाडु के प्रसिद्ध स्वर्णकार वुम्मिडी एथिराजुलु और वुम्मिडी सुधाकर ने 10 शिल्पकारों के दल के साथ बनाया था. इसे चांदी से तैयार किया गया था और उसके ऊपर सोने की परत चढ़ाई गई थी. इस काम में 10 से 15 दिन लगे थे. सेंगोल बनाने वाले वुम्मिडी भाइयों के मुताबिक यह बहुत गर्व की बात थी.

बौद्धिक विकलांगता

पर हमारा तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही घुंट जाता होगा .. शायद ...

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 


बुधवार, 24 मई 2023

3767..नई दस्तक

।। प्रातः वंदन।।

 एक अंकुर हुआ भोर का प्रस्फ़ुटित

यों लगा ये धरा जगमगाने लगी

रात को पी गई एक उजली किरन
इक नये रंग में ढल उषा सज गई
राकेश खंडेलवाल
प्रस्तुति के क्रम को आगे बढ़ाते हुए...✍️


पल !

 मुझे भी चलना है 

तुम्हारे साथ.. 

तुम से कदम मिलाकर

 चल पड़ूँगी 

 इतना भरोसा तो है मुझे ..

आओ जीमने


आज एक नजदीकी मित्र ने बुलाया मुझे जीमने
वो भी सहपरिवार।

मैने घर आके बताया मेरी धर्मपत्नी को

आज खाना ना बनाना यार..
कैसी-कैसी  ने'मत   हमको   जंगल   देते   हैं।

वर्ना सब  होते  हैं  सुख  के   ही  संगी -साथी,
दुनिया में  बस  कुछ  विपदा  में संबल देते हैं।
अनछुए पहलुओं पर नई किताब की दस्तक...

इस दुनिया में तीसरी दुनिया | किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन

श्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित-

"इस दुनिया में तीसरी दुनिया"

संपादक- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', सुरेश सौरभ 

(किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन)

संपादकीय से-

■ डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

प्रस्तुत लघुकथा-संकलन "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" हमारे अपने समाज की ही एक उपेक्षित गाथा है। सदियों के दंश झेल कर यह गाथा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि मेरा दोष क्या? ..

जीने का सलीक़ा







अब हस्र जो भी हो, अहद तो उठा ली है,
इस रात की है शायद अपनी ही मजबूरी
सुबह तक दिल में तेरी दुनिया बसा ली है


।। इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️

ज़रूर सुनें जोश-ओ-जबान







मंगलवार, 23 मई 2023

3766 ..चाय के ठेले से हटके, हम खड़े थे अग्निपथ पर

 सादर अभिवादन

कल के अंक से जारी...
सारे कर्ज चुका दें मसलन
ई एम आई, (कार बाईक की किश्तें) सम्पति कर
सारे बकाया टैक्स (नगर निगम, आयकर)
यदि पैसा दिखाने लायक है तो फिक्स डिपाजिट कर दें
गरीबों की मदद कर दें....
फिर भी बच जाए तो न घबराएं....30 सितम्बर के बाद
वे रुपए एक एप्लीकेशन के साथ आर बी आई में जमा कर दें
वे स्वतः आपके खाते में आ जाएंगे
अब चलें रचनाओं की ओर...




"उगता नहीं तपा, तो डूबता क्या तपेगा! अपने युवराज को समझाओ पुत्र तुम्हारे कार्यालय जाने के बाद दिनभर उनके दरवाजे, खटिया पर पड़ा रहता है जिनके बाप-दादा जी हजूरी करते रहे। किसी घर का बड़ा बेटा चोरों का सरदार है। किसी घर की औरत डायन है,"




जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा निकष होता है, प्रभु से प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि। आत्मा तो पूर्ण है






रूठो ना हमसे तुम प्रियतम,आज साजन क्या हो गया
निभाई प्रीत दिल से हमने ,हाल.अपना क्या कर लिया
..
हैं बहारें खिली मधुबन में ,मौसम आज तड़पा रहा
गा रही  हवाएं गीत मधुर,  दिलअपना तुम्हें दे दिया




वक्त से दुआ-सलाम हुआ ।
दिल को किसी का पैगाम मिला ।
किसी की नादानी को माफ़ किया ।
किसी का दामन थाम लिया ।
किसी मुस्कुराहट का जवाब दिया ।
कुछ देर ठहर किसी दर पर बातें कीं ।
किसी दरख़्त की छाँव महसूस की ।
रास्ते पार किए बगैर जा पहुँचे कहीं ।
घुमाती ही रहती है जीवन की सप्तपदी ।




यूँ ही नहीं हो जायेगा,
मेरे सफ़र का खात्मा।
मैं वो नहीं जो मंजिल पाकर ठहर जायेगा।
मैं वो हूँ जो बहुत आगे
बहुत आगे बहुत आगे जायेगा।




हाथ हाथों में सिमटकर,
कदम कदमों संग चलकर।
चाय के ठेले से हटके,
हम खड़े थे अग्निपथ पर।
चाय की वो चुस्कियाँ,
अब बन चुकी थीं सुर्ख़ियाँ॥


अब बस
सादर