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गुरुवार, 18 मई 2023

3761...ठूंठ होते पादपों पर कोंपले खिलने लगी...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया कुसुम कोठारी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

धरा फिर मुस्कुराई

ठूंठ होते पादपों पर

कोंपले खिलने लगी

प्राण में नव वायु दौड़ी

आस फिर फलने लगी

ज्योति हर कण में प्रकाशित

भोर ने ये वर दिए।।

किताब ज़िंदगी की

ज़िंदगी किताब कोरी सी

हर रात हो जाती,

हर सुबह नया इक नाम चुनो !

ज़ामिन ए निगाह - -

मजरूह दिल ले कर हर क़दम मुस्कुराते हैं,
बारहा शीशा ए दिल को आज़माया न करो,

सांध्य-रश्मि

दिनभर की थकान के बाद

आधी रात को आँखें मलते हुए

सुनाता था लोरियाँ

मेरे 'मैं' को सुलाने के लिए

'अज्ञेय' तो कभी

'मुक्तिबोध' की कविताएँ पढ़ता

मन की मनमानियां

कभी-कभी लगता है चारों तरफ का खाली घेरा बढ़ता जा रहा है. अपनी ही सांस की आवाज़ से टकराती फिरती हूँ. लेकिन इस सबमें कोई उदासी नहीं है. बस कुछ नहीं है जैसा कुछ है शायद.

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


7 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति
    आभार..
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात! पठनीय रचनाओं से सजा एक और नवीन अंक, आभार मेरी रचना को स्थान देने हेतु रवींद्र जी!

    जवाब देंहटाएं
  3. अत्यंत सुंदर रचनाओं से सजा मोहक अंक। सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर रचनाओं से सजी उत्तम प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर सारगर्भित रचनाएं पढ़ने मिली भाई रविन्द्र जी।
    अपनी रचना की पंक्ति को शीर्ष स्थान में देख मन प्रफुल्लित हुआ।
    हृदय से आभार आपका पांच लिंकों पर रचना को शामिल करने के लिए।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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