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शुक्रवार, 19 मई 2023

3762.....हवाओं के रूख़ का सामना...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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पिछले
दो दिनों से न कुछ खा रहा न पी रहा,चुपचाप अपने झुंड से अलग-थलग पान और मनीप्लांट के झुरमुट में दिन-दिनभर पड़ा रहा। कितनी कोशिश की थोड़ा सा कुछ खा ले पानी पी ले पर वो मेरे लाख़ मनुहार करने पर भी बस टुकुर-टुकुर भरी-सी मासूम आँखों से मेरा मुँह ताकता और फिर मुँह घुमा कर दो चार कदम फुदक लेता।
शायद बीमार है वो..कितनी बेबस हूँ कुछ नहीं कर पा रही....
काश! इस मासूम बेजुबान कबूतर की भाषा समझ पाती...बस छटपटा कर रह गयी...
आज उसे शायद अच्छा महसूस हो रहा होगा सुबह-सुबह झुरमुट से निकलकर मुंडेर पर उसे बैठा देखकर
मन खुश हो गया अभी अंदर से उसके लिए 
भीगी दाल लाने गयी थी कि फड़फड़ाने की आवाज़
सुनाई पड़ी,उत्सुकता वश वापस मुड़ी तो देखा विशाल
 चील उसे पंजे में दबाये है और वह नन्हा कबूतर बिना हिले-डुले निरीह,निश्चेष्ट आँखें मूँदे आत्मसमर्पण कर चुका है।
कुछ पल के लिए स्तब्ध, विस्फारित नेत्रों से देखती रह गयी। "परिस्थितियों से संघर्ष किए बिना  जो अपनी मदद स्वयं नहीं करना चाहता उसकी मदद कोई भी नहीं कर सकता"  विचलित मन को यही कहकर सात्वंना दे रही हूँ..।

आइये चलते हैं आज की रचनाओं के संसार में...
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मन की बातें मन ही जाने,भावों के अनसुलझे बाने
तटबंधों को तोड़े जब भी पत्थर को पिघला के माने

जाने क्यों  बूँदे झर पड़ती है ,
बस ,यों ही चुपचाप बैठे .
कारण कुछ नहीं !
मन ही तो है!!

यों ही उमड़ पड़े कभी,
कभी बादल कभी धूप 
कहाँ तक रहे बस में !


बीज के सही अंकुरण के लिए सिंचाई,निराई,गुड़ाई के साथ समय-समय पर कटाई छँटाई भी जरूरी है वरना पौधा सही से बढ़ नहीं पाता और न ही सामान्य आकार प्रकार के फूल और.फल ही दे पाता है। 

नि:संदेह, जन्मगत गुण अवगुण होते हैं,
पर वस्तु हो, फसल हो या मनुष्य
समय पर सिंचाई,
काट छांट... उसके लिए जरूरी है
उत्तम, श्रेष्ठ,बुद्धिजीवी घोषित करने से पहले 
उसे मौसम को सहने का ढंग सिखाइए
कीड़ों से बचाइए,
सही -गलत का फर्क बताइये



समय और परिस्थितियों के अनुरूप ही
 व्यवहार तय होते है। अप्रत्याशित आघात 
से विचलित होकर मौन होना स्वाभाविक प्रक्रिया है,
जो पत्थरों के भीतर बहती निर्झरी के स्वर सुन पाये, 
उन्हें देवता का आशीष मिलता है।

दीवानगी की हद तक पूजा उसे 
एक दिन फ़ैसले की घड़ी आई 
जब उसके पुजारी ने 
अत्याचार की हदें पार कर दीं 
माँगा इंसाफ़ 
तो देवता 
पत्थर होकर 
मूक हो गया

सामाजिक ढाँचे को किस तरह सजाये जाये जिससे
जीवन में संतोष और संतुलन स्थापित हो जिसके लिए
सीढ़ीनुमा व्यवस्था बन गयी है शायद तभी तो
एक भी सीढ़ी के स्थान परिवर्तन की कोशिश से
हिलने लगती है

कई लहरें उठती हैं
गिनता है
एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!
पुनः प्रयास करता है,
बड़ा पत्थर फेंका जाय
और लहरें उठेंगी!!!




एक बेहतरीन लेख

आज के शिक्षित लोग कैसे हैं? आज पढ़ा-लिखा या ज्ञानी होने का अर्थ है, अच्छी नौकरी मिलते ही सबसे पहले एक बड़ी कार खरीदना, साधारण जनों से मिलना-जुलना बंद कर देना और तड़ातड़ ‘अदर’ निर्मित करना तथा उसको शत्रु घोषित करना। अब आदमी अपनी योग्यता की जगह अंधी वफादारी के बल पर कुछ पाना चाहता है। वह हर चमकती चीज के पीछे दौड़ता है। वह न सिर्फ आधुनिकता-विवेक, बल्कि परंपरा-विवेक भी खोता जा रहा है।

सरल शब्दों में कही गयी वज़्नदार मुद्दों को उठाती,
हमेशा की तरह अनेक समाजिक विसंगतियों को इंगित करती एक बेहतरीन अभिव्यक्ति...।

सात फेरों और शादियों के नाम तो,सौदागरी के बोल-बाले हैं
उनके तो सब चकाचक,अपने तो अंदर जूते के फ़टे जुराबें हैं
सुबह-शाम गुनगुना-गा लेते हैं बस, कोई गायक नहीं हैं हम
खुले कुत्ते,उड़ते पंछियों से प्यार भर,कोई लायक नहीं हैं हम
कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम
हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम

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आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।



9 टिप्‍पणियां:

  1. "परिस्थितियों से संघर्ष किए बिना जो अपनी मदद स्वयं नहीं करना चाहता उसकी मदद कोई भी नहीं कर सकता"
    शानदार अंक
    आभार
    सादर

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  2. कभी-कभी परिस्थितियों से संघर्ष करने का कारण नहीं मिलता है


    बढ़िया लिंक्स का चयन

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!श्वेता ..शानदार अंक।

    जवाब देंहटाएं
  4. जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपनी प्रस्तुति में जगह देने के लिए .. आज सुबह ही मार्मिक सच्ची घटना पर आधारित आपकी आज की प्रस्तुति की भूमिका पढ़ा, जो मुझे अनायास निःशब्द कर गया .. बहुत देर तक मन उद्विग्न रहा .. शायद इन निरीहों में भी हम इंसानों की तरह ऋतु परिवर्तन से होने वाले असर की तरह कोई बीमारी पनपती होगी। कारण .. अभी कुछ सप्ताह पहले ही हमारे कार्यालय के प्रांगण में चहारदीवारी पर रखे बर्त्तन में परोसे बाज़रे खाने वाले कबूतरों, तोतों और पंडूकों (उत्तराखण्ड में जिसे घुघूती कहते हैं) में से एक शाम एक कबूतर की यही स्थिति थी, तो कार्यालय से घर के लिए निकलते वक्त उड़ाने का प्रयास करने के बाद भी ना उड़ने पर सुरक्षा के ख़्याल से अपने सामने ही गार्ड से कह कर उसी के केबिन में रखवा दिया। सोचा सुबह तक शायद ठीक हो जाए, पर .. सुबह आने पर पता चला कि कल शाम से कुछ बेहतर हो कर बाहर निकला तो था, पर उतना भी नहीं ... तभी तो सुबह आने वाले पर्यावरण मित्र गण (यहाँ सफाईकर्मियों को ये नाम दिया गया है।) उसे पकड़ कर ले गए। ऐसा हो जाने देने के लिए गार्ड को टोका भी, पर निरर्थक .. उसका कहना था कि वो उस कबूतर को खाने के लिए ले गए पकड़ कर ... ये सारा परिदृश्य आपकी भूमिका पढ़ने के बाद अनायास ही उनींदी आँखों के आगे चल गया और मन-हृदय को मर्माहत कर गया .. बहुत ही कारुणिक है दोनों ही घटनाएँ .. पर .. एक चील और एक इंसान की हवस में अंतर तो है ही ना .. चील तो क़ुदरती क्षुदा की अग्नि शान्त करने के लिए उसे ले गया, पर मानव ??? स्वाद के लिए, जिसके लिए खाने के कई सारे विकल्प हैं .. पर .. हाय री मानवता और मानव और तथाकथित मानव समाज ...

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  5. और हाँ .. एक बात कहना ही भूल गया, कि कई "परिस्थितियाँ" ऐसी भी होती हैं, जो अपनी "मदद" करना तो चाहता है हर प्राणी, पर इसके लिए किए गए कई "संघर्ष" कारगर साबित नहीं हो पाते और लाचार प्राणी अन्ततः हार जाता है .. शायद ...
    कल्पना ( ऐसी दुखांत घटनाएँ सच में भी घट जाती हैं प्रायः तथाकथित भगवान के रहते हुए, चाहे वह किसी भी धर्म के हों) कीजिए .. एक लाचार बच्ची और चार-पाँच बलात्कारी मुस्टंडे .. क्या ही कर पाएगी भला वो .. ऐसा नहीं की उसने अपनी मदद करते हुए संघर्ष नहीं किया होगा .. यक़ीनन किया होगा, पर .. हश्र ???? ... ... ...

    जवाब देंहटाएं
  6. "आत्मनिरीक्षण का जोख़िम" नामक आलेख को आज की प्रस्तुति में संलग्न करने के लिए विशेष साधुवाद .. मुझ जैसे कृपण पाठकों के लिए उपलब्ध कराने के लिए .. इस विचारधारा के पुलिंदा को एक बार नहीं कई-कई बार पढ़ा जाना चाहिए .. किसी-किसी दिन तो किसी चालीसा या व्रत-कथा की जगह इसी का पाठन-वाचन कर लेना चाहिए .. बस यूँ ही ...
    हमारे ब्लॉग में कुछ तकनीकी त्रुटि और रश्मि प्रभा महोदया के ब्लॉग में लगी एक पाबन्दी की वजह से उनकी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया साझा नहीं कर पा रहा हूँ, पर इस मंच के माध्यम से कहना चाहता हूँ कि आजकल बुद्धिजीवी होने की 'सर्टिफिकेट' तो शैक्षणिक संस्थान और कमाई वाली नौकरी वाले चयन ही बाँटते हैं .. शायद ...
    उपर्युक्त आलेख के मुताबिक भी हम और हमारा तथाकथित समाज बुद्धिजीवी तो जरूर हो गया है पर संवेदनशीलता और उचित सृजनशीलता से वंचित होता जा रहा है .. शायद ...

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  7. उत्कृष्ट लिंकों से सजी लाजवाब प्रस्तुति।

    परिस्थितियों से संघर्ष किए बिना जो अपनी मदद स्वयं नहीं करना चाहता उसकी मदद कोई भी नहीं कर सकता"
    सही बात है परन्तु ये बेचारे कबूतर तो बिल्कुल ही असमर्थ से दिख रहे हैं आजकल...। संख्या में भी कमी आई है इनकी।

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  8. अनायास ही आज की प्रस्तुति पर नज़र पड़ गयी , सादिक तो नहीं हैं लेकिन फिर भी सच ही बोल रहे हैं कि आत्मनिरीक्षण करना सरल नहीं क्यों कि सच्चे अर्थों में भला कौन कर पाता है ? वहाँ भी आत्ममुग्धता आड़े आ जाती है । लेख को पढ़ते हुए मन बार बार स्वयं का विश्लेषण करने पर आमादा हुआ । खैर व्यवस्था को देख आज कल हर संवेदन शील मूक हुआ जा रहा और हो भी क्यों न , जब देवता ही पत्थर हो मूक हो गए हैं । असल में हवाओं के रूख को पहचान कर ही व्यवहार करना उत्तम है । इस कड़ी में आत्मरक्षा के लिए संघर्ष सभी करते हैं , लेकिन शायद कष्ट बर्दाश्त न कर पाने की स्थिति में आत्मसमर्पण भी कर देते हों । ये बात मैंने कबूतर पर आधारित घटना से इतर किसी और विषय पर कही है । मार्मिक भूमिका से प्रारम्भ प्रस्तुति बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गयी ।

    जवाब देंहटाएं

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