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गुरुवार, 17 नवंबर 2022

3580...सारी धरती लोहा माने , इंसानी इकबाल का!

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ।

आइए आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

साथ तुम्हारे दौड़ रहा है, बुड्ढा अढसठ साल का-सतीश सक्सेना

इसी हौसले से जीता है, सिंधु और आकाश भी
सारी धरती लोहा माने , इंसानी इकबाल का!

गिरते क़दमों की हर आहट,साफ़ संदेशा देती है!
हिम्मत,मेहनत,धैर्य,ज़खीरा इंसानों की चाल का!

कभी कोई राज न छिप पाया

ना तो  हम जान पाए

नही सर पैर मिला किसी बात का

अपनी  बातों पर अड़े रहे

अपनी बात ही सही लगी

दूर हुए आपसी  बहस बाजी से

जब अन्य लोगों ने भी दखलंदाजी की

उन ने भी बहस में भाग लिया |

कसाइयों के गिरफ़्त में- -

अल्फ़ाज़ की चाशनी में छुपे रहते हैं, क़तरा ए ज़हर,
अपनों का उपदेश कुछ तो सुनें, बर्बाद होने से पहले,

ज़रूरत से ज़ियादा यक़ीं, ले जाता है अंधेरे की ओर,
नाज़ुक परों को लोग कतर देंगे आज़ाद होने से पहले,

झरोखा काम का

वो तो, कैद कर गया, बस परिदृश्य सारे,

बे-आस से वो, दोनों किनारे,

उन, रिक्तियों में पुकारे,

क्षणभंगुर क्षण ये, जिधर थी ढ़ली,

बिखरा, वो सागर जाम का!

वही इक झरोखा...

मेरे काम का!

शून्यता



हमारा अंत है।

नदी

सभी की है

और

हमेशा रहेगी या नहीं

यह पहेली अब सच है।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


7 टिप्‍पणियां:

  1. अप्रतिम वजनदार अंक
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति और मेरा सौभाग्य

    जवाब देंहटाएं
  3. नदी
    पहले विचारों में
    प्रयासों में
    चैतन्य कीजिए
    उसकी
    आचार संहिता है
    समझिए
    वरना शून्य तो बढ़ ही रहा है
    क्रूर अट्टहास के साथ।।।
    - बेहतरीन रचना। जितनी भी तारीफ करूं कम होगी। संदीप जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।।।।

    जवाब देंहटाएं

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