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मंगलवार, 20 सितंबर 2022

3522 ....केवल ऊपर की पर्त ही घी की थी

सादर अभिवादन
एक लघुकथा...



हमारे यहां एक सज्जन अपने गांव से अपने घर का बना शुद्ध देशी घी बेच जाया करते थे। घर पर बने घी की शुद्धता में हमें कोई कमी नजर नहीं आती थी। इसलिए उसे ले भी लेते थे।


एक दिन वे सज्जन अपने घर से पूरा भरा हुआ कनस्तर हमारे घर लाकर बोले कि मुझे पैसे की सख्त जरूरत आ पड़ी है। आप पूरे कनस्तर का दाम न देकर जितना ज्यादा से ज्यादा धन दे सकते हैं, दे दीजिए। हफ्ते भर बाद मैं आपके पैसे वापस कर अपने घी का कनस्तर ले जाऊंगा। उसकी ईमानदारी पर बिना कोई शक किये ज्यादा से ज्यादा रुपये दे दिये जो उसकी वास्तविक कीमत से कम थे।

अब एक हफ्ता बीता। दूसरा भी बीता। यहां तक पूरा महीना भी बीत गया; लेकिन वे सज्जन लौटकर नहीं आये। हमें जब घर में घी की जरूरत पड़ी तो सोचा, क्यों न इसी कनस्तर से घी ले लिया जाए। जब आयेगा तब पूरा हिसाब कर लिया जायेगा। लेकिन जब घी निकाला गया तो केवल ऊपर की पर्त ही घी की थी, नीचे पानी युक्त गोबर भरा पड़ा था।

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है
शूल
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जातिगत-भेद
दलीय राजनीति।




सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी।




हो समर्पित रचयिता बस
नींद त्यागेगी कभी तो
अल्प सा अवकाश मांगे
मोह निद्रा है अभी तो
तोड़ कर के कुंद पहरे
 बह चले शीतल झड़ी।।





विचार खुद की ख़ातिर
तलाशते हैं शब्दों का संसार
शब्दों की तासीर
फूल सरीखी हो तो अच्छा है
शूल का शब्दों के बीच क्या काम
क्योंकि..,
सबके दामन में अपने-अपने
हिस्से के शूल तो
पहले से ही मौजूद हैं ।





हर बार तुम्हारे टूटने से
मेरे अंदर भी
गहरी होती है कोई पुरानी ददार।
तुम्हारे दर्द का हर कतरा
उन दरारों को छूकर
गुजरता है
और
चीख उठता हूं मैं भी
अतीत को झकझोकर
पूछता हूं सवाल
मैं कौन हूं




जाने अनजाने
पापा के कहे शब्दों को ही
 पत्थर की लकीर
समझने वाली लड़की
 सीता ही तो बनती है।
 पर सीता बनना आसान नहीं होता।
 उसके भाग्य में वनवास जरूरी होता है।





“ सवेरे मूरी दूध बराबर, दोपहर मूरी मूरी ।
साँझ क मूरी जहर बराबर, मानों बात जरूरी ॥”
इस कहावत में वे समझाती थीं कि मूली कब और क्यों नहीं खानी चाहिए.. उनका कहना था कि मूली सुबह के समय दूध जितनी फ़ायदेमंद है, दोपहर में वो अपने मौलिक गुण जितनी फ़ायदेमंद है, परंतु शाम को वो नुक़सान करती है ।



आज बस

सादर 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन सूत्रों को संजोये लाजवाब संकलन । संकलन में मेरे सृजन को सम्मिलित करने आपका हार्दिक आभार । सादर..,

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  2. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार आदरणीया सादर

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  3. आज तो जबदस्त हलचल हुई । सबसे पहले ठगी और फ़ॉर उम्दा लिंक्स । आभार ।

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  4. बहुत सुंदर सराहनीय अंक। मेरी कहावतों को शामिल करने के लिए आपका आभार और अभिनंदन ।

    जवाब देंहटाएं

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