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बुधवार, 20 अप्रैल 2022

3369.…दुख के भीतर ही छुपा, सुख

 ।।प्रातः वंदन ।।

"अंधेरे में किरण बन

पथ दिखाने कौन आया है?

तिमिर को भेद कर अब

जगमगाने कौन आया है?

बहुत लम्बी निशा बीती,

अंधेरी कालिमा वाली,

बहुत ही दूर लगती थी,

उषा वह लालिमा वाली,

मगर अब प्राची को अरुणिम

बनाने कौन आया है?"

उर्मिल सत्यभूषण 

नज़र लग गयीं आजकल के मौसम और मिजाज़ को,इसलिए थोड़े संयम और समझदारी की जरूरत है। लीजिये स्वागत है बुधवारिय प्रस्तुति की...✍️


जरा ध्यान लगाकर सुनो तो?

ये कैसी आवाजें है?


देखा नही

पर सुना है

किताबों में पढ़ा है

पहले शास्त्रार्थ हुआ करते थे

जीवन जीने के लिए

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नया अफसाना

अजी! शुक्रिया आपका,जो आप मुस्कुराए हैं ,
के आंखों में तमाम सारे,ख्वाब झिलमिलाए हैं,
जी गया हूँ,नई जिंदगी,इन्ही चंद लम्हों में मैं ,
आप मेरे वज़ूद पे जैसे बहार बन के छाए हैं ।
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समर भूमि संसार है

                                         

दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल..
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अपने भाग को पुण्य तो
निज धरम करम से होय ।
जै पंडित सुमिरन करे 
तोहे पुण्य नहीं होय ।

सहस्त्र घड़ी तू बावरे 
 पर निंदा में खोय ।
मुख में बाणी प्रेम की
तो कोई ना बैरी होय


रीता मन

 

रीता मन - रीते नयन, भीगे-भीगे पल क्या लिखूँ?

सूना आँगन - सूना उपवन, उल्लास प्रेम का क्या लिखूँ?

 

वे सावन संग भीगे थे हम, रुत वसंत झूमे थे संग,

मकरंद प्रेम का बिखरा था, बूँदों में तन-मन पिघला था.

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।।इति शम ।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️


5 टिप्‍पणियां:

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