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गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

3369...जब हों आमने सामने, आँखे हमारी नीची न हों...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय अशर्फी लाल मिश्र जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

बयार मौसमी

अचानक बादल आपस में टकराए

बिजली चमकी बादल गरजे

तेज हवा का झोंका आया

टप टप ओले टपके

बच्चे उन्हें खाने को दौड़े |

आँखें हमारी नीची न हों


पर रहे ख्याल इतना,

जब हों आमने सामने,

आँखे हमारी नीची न हों ।।

घड़ी बिरहा की फिर टली है क्या !!!!!

ऊंचा उड़ने से पहले देख तो ले

तेरे कदमों तले ज़मीं है क्या .......

दावा उनका फ़कीर होने का

दिल में हसरत कोई दबी है क्या......

अंधियारे को भेदकर

उठाओं जिम्मेदारी का

चादर

जो गिरा

विकास पर बनकर

कफन

धरा की आत्मा से

उर्जा का रस निकालो

उडेल दो आसमान पे

तुम तो प्यार हो...

मुझे लगता है कोई परेशान हो आसपास तो उसे कुछ कहना नहीं चाहिए, उसकी हथेलियों को थामकर घंटों बैठे रहना चाहिए. श्रुति यह जानती है. हम नदियों में पैर डाले नीले आसमान से झरती खुशबू में डूबे रहते हैं. मेरे काँधे पर उसका सर होता है और मेरी हथेलियों में उसकी हथेलियाँ. लगता है दुनिया सिमटकर इन हथेलियों में आ गयी है. शहर मुस्कुरा रहा है. 

 *****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


2 टिप्‍पणियां:

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