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गुरुवार, 31 मार्च 2022

3349...हैं मुर्दों के ख़बरी आँकड़े, पर आहों के कहाँ...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय सुबोध सिन्हा जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

हाल मेरे मन का

पर बुराई भी कम नहीं उसमें

स्थिरता नहीं उसमें यहाँ वहां थिरकता

भूल से यदि खा लिया जाता

भव सागर से मुक्ति की राह दिखाता

यही बुराई  दिखी मुझे इसमें |

मुझसे रूठी मेरी कविता (लघु कविता)

हर दिन ' हर रात-सवेरे, नई  राहों  से निकल जाती।

मैं तुम्हारा  सन्त  उपासक, तुम औरों  के दर इठलाती।

रातें  कितनी  भी  गहराएँ, आँखों  में  नींद  नहीं आती।

काव्य-कविता नाम तुम्हारा, तुम रसिकों का मन बहलाती।

जीवन मधुरिम काव्य परम का

शब्द गूँजते कण-कण में नित

बाँचें ज्ञान ऋचाएं,

चेतन हो हर मन सुन जिसको

गीत वही गुंजायें !

 शुभता का ही वरण सदा हो

सतत जागरण ऐसा,

अधरों पर मुस्कान खिला दें

हटें आवरण मिथ्या !

तनिक उम्मीद ...

हैं हैवानियत की हदें पार करने की यूँ चर्चा,

ऐसे भी भला तुम जैसे क्या फ़रीद बनते हैं?.. बस यूँ ही ...

हैं मुर्दों के ख़बरी आँकड़े, पर आहों के कहाँ,

हैं रहते महफ़ूज़ मीर सारे, बस मुरीद मरते हैं .. बस यूँ ही ...

थोड़ा और बेहतर मनुष्य होना सिखाती है कथा नीलगढ़

अगर कोई नीलगढ़ में जाकर बस गये और उस गाँव में बदलाव के लिए कार्य करने वाले युवा अनंत गंगोला से बात करके यह किताब लिखता तब इतनी सुगढ़, परिमार्जित और साहित्यिक दृष्टि से भी समृद्ध किताब की कल्पना करना आसान था लेकिन चूंकि यह किताब खुद अनंत गंगोला ने लिखी है इसलिए कई बार हैरत भी होती है कि एक व्यक्ति कितना समृद्ध हो सकता है जीवन जीने के सलीके को लेकर भी उस सलीके की बाबत बात करने की बाबत भी और उसे किताब के रूप में दर्ज करने को लेकर भी. यह किताब साहित्य की तमाम विधाओं को अपने भीतर समेटने को आतुर दिखती है. कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, संस्मरण, यात्रा वृत्त.

सदाबहार हिन्दी उर्दू नग़में - - मेरे द्वारा संग्रहित, अवश्य पधारें।

*****फिर मिलेंगे। रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 30 मार्च 2022

3348..क्यों बढ रहे.. थिंक टैंक

 

।।प्रातः वंदन ।।

"फिर दरका पूरब —

बही धार,

लाली से

धरती का सिंगार,

रंग भरे व्योम के

ओर-छोर

पूरब जागा

दिशि रोर घोर!

यह लाली —

जैसे नई ज्वाल

नूतन लय जीवन में

जीवन की नई ताल!"

रामशरण शर्मा 'मुंशी'

अलसाई सी दुपहरी और वही शब्दों के ताना -बाना में आजकल न जाने क्यों कुछ हलचल सी होती है…✍️


न जाने क्यों…

तुम्हारी याद मेरे  मन के

 दरवाज़े पर

पछुआ पवन सी

दस्तक देने लगी है 

तुम्हारे घर का आंगन

नींद में भी

🔶🔶

ख्याल तक नहीं आया उसका..

यह तो उसे न खोज पाने का   

एक बहाना हो गया

अतिव्यस्त हूँ 

 कहने को हो गया|

ख्याल तक नहीं 

आया उसका

जिससे मिले 

ज़माना हो गया |

तुमने  अपने मन में 

झांकने की

 कोशिश तो की होती 

🔶🔶

विभीषिका 

प्यारी चिड़िया

आकुल मन से देख रही हूँ तुम्हें

बेहद काले गाढ़े धुँए के गुबार से

बाहर निकलते हुए

हैरान, परेशान,  

आकुल व्याकुल, रोते, चीखते

🔶🔶

एक पड़ताल: क्‍यों बढ़ रहे हैं भारत में थिंक टैंक?




 


किसी भी देश की प्रगति उसकी आमजन की प्रगति से जुड़ी होती है, और इस प्रगति का पाथ-वे बनती हैं वो ‘नीतियां’ जिन्‍हें विभिन्‍न थिंक टैंक सर्वे और विश्‍लेषणों द्वारा सरकार को सुझाते हैं। लोगों का जीवनस्‍तर सुधारने के लिए जो भी उपाय सरकारें करती हैं, उनमें थिंक टैंक्‍स द्वारा सुझाए गए उपाय ”नींव के पत्‍थर” का काम करते हैं। इनकी संख्‍या का भारत में बढ़ते जाना कई बिंदुओं पर पड़ताल को बाध्‍य कर रहा है, हालांकि ये पॉजिटिव खबर है परंतु इस बीच कुछ..
🔶🔶

जाते- जाते सच बताना ...क्या तुम्हें भी कुछ मिला..

प्यार सौदा है
जिसके बदले में कुछ नहीं मिलता 
 
मुझे तो कुछ नहीं मिला
पर सच बताना ... क्या तुम्हें भी..

🔶🔶
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'✍️

मंगलवार, 29 मार्च 2022

3347..पाने की ज़न्नत में बहत्तर हूरों के हो दीवाना,

सादर अभिवादन.....
आज का मंगलवारीय अंक
कुछ यूँ है....



दकियानूसी सोचों से सजी यूँ दिमाग़ी सेज,
क़ैद हिजाबों में सलोने चेहरे हैं बने निस्तेज।

क़ाफ़िर भी हैं इंसाँ, समझो ना तुम आखेट,
अगरचे हो रहे हो तुम भी तो यूँ मटियामेट।






तेरे मेरे होने के पास
कोशिश है करना ही होगा
दर्द के टुकड़ों को सीनाही होगा
मुस्कुरा कर जिंदगी को मेरी
बिन तेरे अब जीना ही होगा



दरअसल,यह उनकी गलती नहीं है।मैंने खुद को ऐसा तैयार किया है कि बाहर से बुद्धिमान लगूँ।कई बार तो मुझे भी शंका होने लगती है कि मैं भी उन जैसा हूँ।फिर अगले पल मेरी उपलब्धियाँ बताती हैं कि मैं दिशाहीन होने से बच गया।बिना किसी मुलम्मे के मैं सोने-सा ख़रा मूर्ख हूँ।मुझे इस बात का बेहद संतोष है कि मूर्खता के दम पर मैंने अपनी अलग पहचान बनाई है।





रह जाती हूँ अचंभित देखकर उन बालकों का देखकर मोबाइल- प्रेम हर दिन
कुछ आधुनिकता का असर ,कुछ माता-पिता की अपनी व्यस्तता निस-दिन
व्यस्त भाग -दौड़ भरी ज़िंदगी ,एकल परिवार भी हैं शायद इसके जिम्मेदार
कुछ तो सोचना ही होगा परिवारों को और निकालना होगा ठोस उपाय जरूर
नानी -दादी ,माता -पिता जब  खुद व्यस्त हैं अपने मोबाइल के साथ दिन और रात




स्नात नैनों को, दुसह स्मृति में झुकाकर, दीन जैसे
सांध्य-ऊषा में फिरेंगे, रेणु बन सर के किनारे।
अब गगन से रक्त बरसे, या कि गिर जाए गगन ही
प्रेयसी, दुःस्वप्न की पीड़ा कहो कैसे बिसारें?




मन केवल नींद में ही नहीं देखता स्वप्न
दिवास्वप्न भी होते हैं
जागती आँखों से देखे गए स्वप्न
बात यह है कि
खुद से मिले बिना नींद खुलती ही नहीं


आज बस

सादर 

सोमवार, 28 मार्च 2022

3346...फिर सोचा शायद यह खुदगरजी तो नहीं ...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया आशा लता सक्सेना जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

सोमवारीय प्रस्तुति लेकर हाज़िर हूँ।

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

मोहब्बत किससे

सबसे सरल सबसे सहज

अपनी ओर झुकाव

लगने लगा मुझे

फिर सोचा शायद यह

खुदगरजी तो नहीं |

स्वर सुर सरगम

मन में सरगम जब बजे, मुख पर लाली लाज।

पाँवों में थिरकन मचे, रोम बजे हैं साज।।

राग नहीं सरगम बिना, लगे अधूरी जीत।

मधुर रागिनी जब बजे, कोमल मुखरित गीत ।।

मेरी तन्हाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत

रंग बहुत है इंद्रधनुष में, पर बेरंग हालात हुए

कोई भी तस्वीर आंख को अब तो नहीं लुभाती है।

किसके ख़ातिर जीना है अब, किसके ख़ातिर मरना है

एक यही तो बात समझ में, मुझे नहीं अब आती है।

 " रिश्तों पर कविता "


अपने रक्त के रिश्तों से हो रहा परायों सा बर्ताव

बेबुनियाद के रिश्तों से रख के अपनों सा लगाव

इस तरह उलझ ना रिश्तों से मन में गाँठ बाँधिए

नाते अनमोल अंश जीवन के अहमियत जानिए

छत विहीन प्रासाद - -

नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की -
नरम धूप, उसे तो हर हाल
में है ढल जानाछत
विहीन स्तंभ रह
जाते हैं अपनी
जगह ओढ़े
हुए दूर
तक वीरानगी के चादर

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव