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बुधवार, 1 सितंबर 2021

3138..चेहरों की गुफ़्तगू...

 ।। भोर वंदन।।

सूरज

रातभर

मांजता रहता है

काली पृथ्वी को

तब जाकर कहीं

सुनहरी

हो पाती है 

पृथ्वी।

(सौजन्य 'भारत-दर्शन' पत्रिका) 

सृष्टि केन्द्रित प्रकृति से सतत सामंजस्य, सृजनात्मकता,संभावना  सर्वविदित है। आइए हम आप जानें विचारों की विविधता और छूपे गूढतम तथ्यों को जिसे सूरज परिष्कार करता है अर्थात मांजता है।

एक बात जाने से पहले रचनाकारों को क्रमानुसार पढ़तें चलें..✍️

आ० अनिता जी

आ०अरूण साथी जी

आ० कैलाश मंडलोई 'कदंब' जी

आ० शांतनु सान्याल जी

आ० दिगम्बर नासवा जी




जीवन का स्रोत

हज़ार-हज़ार रूपों में वही तो मिलता है 

हमें प्रतिभिज्ञा भर करनी है 

फिर उर को मंदिर बना  

उसकी प्रतिष्ठा कर लेनी है 

यूँ तो हर प्राणी का वही आधार है 

किंतु अनजाना ही रह जाता 




कैदखाने में
माँ देवकी
मौत के आगोश में
जिसे जन्म दिया
वही कृष्ण है


माता यशोदा
का प्यार और
कभी कालिया नाग
तो कभी राक्षसी
से
 जो बच पाया..
🔹🔹

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जाग उठे 
सोई मानवता 
उठ खड़ी हो 
दिलों में क्रांति  
जम जाए शब्द 
जन-जन के मन में 
कुछ ऐसी बात रखूंगा 
कोई जागे या न जागे, 
मैं आवाज लगाऊँगा, 
अपना कवि धर्म निभाऊंगा। 
गर उठे भरोसा 

🔹🔹




शब्दहीन ओंठों पर चिपके हुए हैं मुद्दतों से,
ख़्वाबों के ख़ूबसूरत चुम्बन, आईने
की हंसी में है व्यंग्य मिलित
कोई महिमा कीर्तन,
कौन किसे है
छलता
हैं
यहां, दरअसल हर चेहरे पर लगा होता है
और एक चेहरा, एकांत पलों में जो
घूरता है अरगनी से नग्न देह
का परावर्तन, आईने की..
🔹🔹

साहिल की भीगी रेत से लहरों की गुफ़्तगू.
सुन कर भी कौन सुनता है बहरों की गुफ़्तगू.

कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.

🔹🔹

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️


9 टिप्‍पणियां:

  1. लगेगी आग
    शब्दों से
    हृदय जल उठेंगे
    अश्रु जल बरसाऊंगा
    मैं अपने जज़्बातों से
    दिलों की आग बुझाऊंगा
    बेहतरीन अंक
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर भूमिका, सूरज ही सँवारता है धरती को, वरना हमें एक भी रंग दिखाई न देता, सूरज ज्ञान का प्रतीक है और साहित्य ज्ञान को फ़ैलाने का एक माध्यम, अर्थात सूरज से उसकी तुलना सार्थक है.
    सुंदर रचनाओं के लिंक्स से सजा अंक, आभार !

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय दिगंबर नासवा जी की पंक्तियाँ -
    कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
    खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.

    अब आफ़ताब का भी निकलना मुहाल है,
    इन बादलों से हो गई कुहरों की गुफ़्तगू.....
    यही आलम है आजकल।

    आदरणीया पम्मीजी, बहुत सुंदर रचनाएँ।

    जवाब देंहटाएं

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