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मंगलवार, 7 जुलाई 2020

1816...यह कैसी बरसात है?


सादर अभिवादन। 

मंगलवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

यह कैसी बरसात है?
जो बरसात-सी नहीं है,
ऋतु-क्रम तो जारी है
बहार बहार-सी नहीं है। 
-रवीन्द्र 
 
 आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-


 प्रज्ञ मर्मज्ञ धीमान् भी वो
दीपक लौ मेधा की बाती
अभिनव इक पहचान बनाते
अज्ञान शत्रु के जो घाती।
नमन हृदय से ऐसे गुरु को

गुरु वंदना --रेणुबाला 

सह्जों ने नित गुरुगुण गाया ,  मीरा ने गोविन्द को पाया ,  रत्नाकर बन गये बाल्मीकि 
 गुरुकृपा का  था ये  कमाल गुरुवर !


करै दिखावा गुरु, शिष्य का समझ ना आता,
गुरु पूर्णिमा का पर्व अंधी भटकान मिटाता,,
 मत करो शास्त्र बदनाम, गुरु को ना दाग लगाओ,
सुनील कुमार का कथन सभी अंधकार मिटाओ,,.......


  
मास्टर सीताराम ने मेरा सहयोग किया। आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में मैंने पूरे गाँव का नाम रोशन किया शहर के नवोदय विद्यालय में मेरा दाखिला करवा दिया। वहाँ से मैं आगे बढ़ती गई। गाँव  से मास्टर सीताराम का आना-जाना  लगा रहा ।वह हमेशा मेरा साथ देते रहे। आज मैं जो हूं उनकी शिक्षा ,सदाचार और उपकारों की वजह से हूं।"


mata pita
सुबह सुबह कृति की आवाज़ से नींद खुली देखो बाहर कोई हे अधखुली आंखों से देखा माँ पिताजी खड़े है पिता जी के चिल्लाने से मेरी खुमारी टूटी जा सामान ले के , सामान अंदर रख के गेट लगाया जब तक पिताजी ने जेम्स बॉन्ड के माफिक घर का सारा हाल लेे लिया मां नहा के कृति के पास गई और बोली चिंता ना कर बेटी जापे का सारा सामान लाई हूं अंश भी खुश था

चलते-चलते एक पोस्टर-


हम-क़दम का अगला विषय है-
'अभिशाप'

इस विषय पर आप अपनी किसी भी विधा की रचना आगामी शनिवार तक हमें भेज सकते हैं। चयनित रचनाएँ हम-क़दम के 126 वें अंक में आगामी सोमवार को प्रकाशित की जाएँगीं। 

उदाहरणस्वरूप कविवर भगवतीचरण वर्मा जी की एक कविता प्रस्तुत है-  
 
बस इतना अब चलना होगा  
भगवतीचरण वर्मा

"बस इतना अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे
तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।"

-भगवतीचरण वर्मा

साभार: हिंदी समय डॉट कॉम 
*****

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव
 

7 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    बेहतरीन प्रस्तुति
    आभार..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय रवीन्द्र जी इस साहित्यिक मंच पर मेरी रचना का चयन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, सभी वरिष्ठ एवम् ग्रुप के साहित्य प्रेमियों को नमन । सभी रचनाएं बहुत बेहतरीन🙏🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया रचनाओं का संगम
    सभी रचनाकारों के बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
  4. यह कैसी बरसात है?
    जो बरसात-सी नहीं है,
    ऋतु-क्रम तो जारी है
    बहार बहार-सी नहीं है।
    सटीक!! सामायिक परिस्थितियों में ये पंक्तियां हर व्यक्ति के अंदर के भय को व्यक्त कर रही है, ऋतु क्रम तो चलते रहेंगे ना रुक ना रुकेंगे पर कौन से पदचिन्ह छोड़ेंगे कोई नहीं जानता।
    गहन भाव लिए संवेदनशील पंक्तियां भुमिका में।
    सुंदर प्रस्तुति, शानदार लिंक चयन।
    सभी रचनाएं बहुत आकर्षक।
    सभी रचनाकारों को बधाई।
    मेरी रचना को शामिल करने केलिए हृदय तल से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर अंक आदरणीय रवीन्द्र जी| मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत आभारी हूँ | |
    यह कैसी बरसात है?
    जो बरसात-सी नहीं है,
    ऋतु-क्रम तो जारी है
    बहार बहार-सी नहीं है।
    सही है मौसम भी अब वो आनन्द नहीं दे रहे | बदले परिवेश की यही व्यथा कथा है | समस्त रचनाकारों को नमन | आपको बधाई सार्थक प्रस्तुति के लिए |सादर

    जवाब देंहटाएं

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