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शुक्रवार, 29 मई 2020

1778....मानवता की बात वहाँ बेमानी है

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल
अभिवादन
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कन्हैया लाल मिश्र "प्रभाकर"
29 मई 1906-9 मई 1995
स्वतंत्र सेनानी, समाजसेवक, गाँधीवादी विचार धारा के पोषक, प्रसिध्द सम्पादक , लेखक , रिपोर्ताज लेखन में  सिध्द हस्त,  उच्चविचारक , आचरण की पवित्रता एवं जीवन की सादगी के  साधक मिश्र जी का हिन्दी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है।
पढ़िए स्मृतिशेष प्रभाकर जी की दो लघुकथाएँ
अंगार ने ऋषि की आहुतियों का 
घी पिया और हव्य के रस चाटे। 
कुछ देर बाद वह ठंडा होकर 
राख हो गया और 
कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया।

ऋषि ने जब दूसरे दिन 
नये अंगार पर आहुति अर्पित की 
तो राख ने पुकारा, 
"क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज?"

ऋषि की करुणा 
जाग उठी और 
उन्होंने पात्र को पोंछकर 
एक आहुति उसे भी अर्पित् कर दी।
.......
मैं अपना काम ठीक-ठाक करूँगा और उसका पूरा फल पाऊँगा..
एक ने कहा
मैं अपना काम ठीक-ठाक करूँगा और निश्चय ही भगवान उसका पूरा फल मुझे देंगे यह दूसरे ने कहा
मैं अपना काम ठीक करूँगा। फल के बारे में सोचना मेरा काम नहीं...यह तीसरे ने कहा
मैं काम-काज के झमेले में नहीं पड़ता। जो होता है, सब ठीक है। जो होगा सब ठीक होगा...यह चौथे मे कहा

आकाश सबकी सुन रहा था। उसने कहा "पहला गृहस्थ है, दूसरा भक्त है, तीसरा ज्ञानी है, पर चौथा परमहंस है या अहदी (आलसी) यह मैं कह नहीं सकता
......



कोई तो समझाए इन नादानों को
जीवनमूल्य सिखाये इन अनजानों को
जानेंगे जब त्याग, प्रेम की महिमा को  
मानेंगे निज हित चिंता बेमानी है !





रेल होना चाहती हूँ
कि जहाँ सोये हों मजदूर
बदल सकूँ उधर से गुजरने का इरादा
पानी होना चाहती हूँ
कि हर प्यास तक पहुँच सकूं
पुकार से पहले
रोटी होना चाहती हूँ
कि भूख से मरने न दूं
धरती पर किसी को भी

कल-आज-कल 
हे वर्तमान!
मैंने तो नहीं सौंपा था तुम्हें ऐसा हो जाने का सपना। 
मैंने तो स्वयं को मिटाकर 
तुम्हें हर हाल में बेहतर
 होने के लिए गढ़ा है। 
कल भविष्य जब तुम्हें नकारेगा, 
दुत्कारेगा; तुम्हारी मंशा पर उँगली उठाएगा 
और तुम्हारे किए-धरे को ख़ारिज़ करेगा 
तब तुम क्या करोगे?"



यह चुप्पी हमारे अस्तित्व  हमारी स्वतंत्रता,हमारे अधिकरों और हमारी महत्वकांक्षाओं को नष्ट कर रही है और हम मनुष्य से जानवर में परिवर्तित हो रहें हैं.
अब समय है चुप्पी तोड़ने का, अब हमें असंख्य आवाजों के साथ चीखना होगा.

हम भी



चुभते रहे न जानिए, कितनों की निगाह में
आपने जो थामा हाथ , गुलाब हम भी हुये

गुज़र रहे थे आम से, रात दिन बेज़ार से
हुई निगाह तुमसे चार, ख़ास हम भी हुये

उपकृत



अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है 
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं

मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूँ 

दुखद यह है कि लाशों के पास कोई सुसाइड नोट लिखा हुआ नहीं मिल रहा है। या कि मिला भी होगा ! वह भी वायरल किया जाएगा! इसमें लिखा होगा, मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं। इसके लिए किसी सरकार, किसी अधिकारी, किसी  किसी राजा का दोष नहीं है। मैं इसके लिए दोषी हूं। और सरकार इस दोष की सजा जो मुकर्रर करें, मैं कबूल कर लूंगा!!
....
हम-क़दम का 
नया विषय
यहाँ देखिए


कल मिलिए विभा दीदी से
उनकी अनूठी प्रस्तुति के साथ
आज के अंक के बारे में
ज़रूर कहें कुछ
#श्वेता


11 टिप्‍पणियां:

  1. सभी लिंक्स पढ़ने की कोशिश रही आज.. विचलित करती लेखनी

    उम्दा लिंक्स चयन
    साधुवाद छूटकी

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह!शानदार प्रस्तुति श्वेता !!

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन लिंक्स, बहुत सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर सूत्रों का संकलन आज की हलचल में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन रचना प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन लिंक्स , सुन्दर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति।
    सभी लिंक बहुत सुंदर।
    सभी कलमकारों को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुंदर सूत्र संयोजन
    सम्मिलित रचनकारों को बधाई
    मुझे सम्मिलित करने का आभार

    जवाब देंहटाएं

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