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बुधवार, 20 नवंबर 2019

1587..आँगन को टेढ़ा क्यूँ कहें...


।। भोर वंदन ।।
" नये-नये विहान में

असीम आसमान में

मैं सुबह का गीत हूँ!

मैं गीत की उड़ान हूँ
मैं गीत की उठान हूँ
मैं दर्द का उफान हूँ
मैं उदय का गीत हूँ
मैं विजयका गीत हूँ
सुबह-सुबह का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ! "
              धर्मवीर भारती

चलिए अब..अगहनी विहान के साथ चुनिंदा लिंकों पर नज़र डालें..✍
💎💎




नाच गर आए न तो आँगन को टेढ़ा क्यूँ कहें
क्यूँ कहें तलवार की सी धार है ये ज़िन्दगी..
💎💎

ऐसे ही कुछ लम्हे, कुछ किस्से रोज़-मर्रा के जीवन में भी आते हैं जो किसी भी अपने की यादों को ताज़ा कर जाते हैं .... कुछ
💎💎



उस वक्त मैं कितना ,
खुशनसीब था,
जो तेरा दिख जाना ,
भी कितना हसीन था।
मोहब्बत तो करते थे
बादशाहों वाली,..
💎💎


कर रही है खुशगवार
रातरानी की यह मादक महक
मुझको...
लदी हुई हैं शाखें
कोमल उजले सफेद फूलों से,
खिल उठते हैं हममिजाज़ मौसम में
गुंचे गुलों के
बिना किसी इंतजार..
💎💎




कई बार जो जहर हम दोनों ने साथ-साथ पीया,
चंद रोज की अनबन में तुमने जमाने को उगल दिया.
💎💎
हम-क़दम का नया विषय
यहाँ देखिए
💎💎
।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

7 टिप्‍पणियां:

  1. मैं गीत की उड़ान हूँ
    मैं गीत की उठान हूँ
    मैं दर्द का उफान हूँ
    मैं उदय का गीत हूँ
    मैं विजयका गीत हूँ
    सुबह-सुबह का गीत हूँ
    व्वाहहहह...
    लाजवाब...
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. भूमिका में शानदार पँक्तियाँ
    सराहनीय प्रस्तुतीकरण

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहद प्रेरक शिक्षाप्रद पंक्तियाँ भूमिका की।
    अगहनी विहान मन भा गया।
    सभी सूत्र बेजोड़ हैं।
    सुंदर सुगढ़ प्रस्तुति पम्मी जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर संकलन,बेहतरीन रचनाएं।

    जवाब देंहटाएं

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