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गुरुवार, 21 नवंबर 2019

1588...ऊषा-प्रांगण में खिलते अरुणित सूरज का हँसना...

सादर अभिवादन। 

वो 
देखो! 
धुंध में छिप गया 
एक महानगर, 
गाड़ी-रेलगाड़ी  
आहिस्ता चलाओ 
दुर्घटना का है डर।  
-रवीन्द्र 


 तेरे दिए दर्दों की ही कैफ़ियत है ये ग़ज़ल
रियाज़ रोज करूं दर्द छुपा गुनगुनाने की
किन कण्ठों से गाऊँ मैं जज़्बात शौक से
भींगा लफ़्ज़ भी उदास होता शायराने की ,


 
लम्हें, महीने, घंटे, दिन, ये साल ' सदी
तन्हाईयों से आगे भी तन्हाई बढ़ गई

आने लगे हैं ख़्वाब में, अब रंग सौ नज़र
जब से बसे हो आँख में, बीनाई बढ़  गई

 नादां है बहुत
कोई समझाये दिल को
डगमगा रही नौका बीच भंवर
फिर भी लहरों से
जुझने को तैयार




ऊषा-प्रांगण में खिलते
अरुणित सूरज का हँसना
लोपित होता बालकपन
उर में तरुणाई धँसना
चाँदी सी सुंदर काया
उत्तुंग शिखर पर सोना
चंदा की मृदुल मृदुलता
सूरज - अभिनंदित होना




 
कुछ समय बाद ग्रामीण सभ्यता गई जो लगभग 1600 से 600 ईसा पूर्व तक मानी गई है. यह सभ्यता गंगा जमुना के मैदान में फैली हुई थी जहाँ खेती आसान थी, मौसम अच्छा था और पानी उपलब्ध था. इसे वैदिक काल कहा जाता है क्यूंकि इसी दौरान वेदों की रचना हुई मानी जाती है. पूर्व वैदिक काल में ऋग्वेद और उत्तर वैदिक काल में सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद की रचना हुई.

हम-क़दम का नया विषय

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

10 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति..
    साधुवाद...
    आभार..

    जवाब देंहटाएं
  2. उम्दा रचनाएं
    शानदार प्रस्तुति
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह बहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय सर।
    सभी रचनाएँ स्वंय में श्रेष्ठ। सभी को ढेरों शुभकामनाएँ।सादर नमन 🙏

    जवाब देंहटाएं

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